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निर्व्याघातपादपोपगमन ]
जहि नियमा । पउरासुहपरिणामं कहाइ णिव्वेयणीइरसो || ( दशवं. नि. २०२ ) । जहाँ पर तीव्र अशुभ फल वाले प्रभादकृत कर्म का नियम से थोड़ा सा भी कथन किया जाता है वह निवेदनीकथा का रस (सार) है। निर्व्याघातपादपोपगमन - १. निर्व्याघातं तु प्रव्रज्या शिक्षा पदादिक्रमेण जराजर्जरितशरीरः करो ति, यदुपहितचतुविधाहारप्रत्याख्यानो निर्जन्तुकं स्थण्डिलमाश्रित्य पादप इवैकेन पाइवेन निपत्यापरिस्पन्दस्तावदास्ते प्रशस्तध्यानव्यापृतान्तःकरणो यावदुत्क्रान्ताः प्राणास्तदेतत् पादपोपगमनाख्यम् श्रनशनम् । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वू. ६-१६) । २. निर्व्याघातवत् पुनर्यत्सूत्रार्थ तदुभयनिष्ठितः शिष्या निष्पाद्योत्सर्गत: द्वादशसमाः कृतपरिकर्मा सन्ध्याकाल एवं करोति । उक्तं च- चत्तारि विचिताई विगईनिज्जू हियाइं चत्तारि । संवच्छ रे दोणि उ एगंतरि च श्रायामं ॥ णाइविगट्ठो तवो छम्मासे परमिश्रं च आयामं । श्रन्ने वि अ छम्मासे होइ विगिट्ठे तवोकम्मं । वासं कोडीसहियं का प्रणुपुवीए । गिरिकंदरं तु गंतुं पायवगमणं ग्रह करेइ ।। (दशवं. नि. हरि. वृ. पृ. २६-२७) ।
अ
१ प्रव्रज्या शिक्षा या पद श्रादि के क्रम से जिसका शरीर वृद्धपन से जर्जरित हो गया है वह निर्ध्याघातपादपोपगमन अनशन को करता है तब वह चारों प्रकार के प्रहार के परित्याग को स्वीकार करके जीव जन्तुरहित शुद्ध भूमि का श्राश्रय लेता है और वहां पादप (वृक्ष) के समान एक पार्श्वभाग पड़कर हलन चलन से रहित होता हुआ प्रशस्त ध्यान में मन को तब तक लगाता है जब तक कि प्राण नहीं निकलते, यह निर्व्याघातपादपोपगमन नाम का अनशन है ।
नियूँढ ( खिज्जूढ ) – सम्मं धम्मविसेसो जहि कस - छेप्र-तावपरिसुद्धो । वणिज्जइ निज्जूढं एवं विहमुत्तमसुनाई || सम्यग् धर्मविशेषः पारमार्थिकः यत्र ग्रन्थरूपे कषच्छेद- तापपरिशुद्धः - त्रिकोटिदोषवर्जितः वर्ण्यते, सम्यक् निर्व्यूढमेवंविधं भवति ग्रन्थरूपं तच्चोत्तमश्रुतादि, उत्तमश्रुतं - स्तवपरिज्ञा इत्येवमादीति गाथार्थ: । ( पञ्चव. १०२० ) । जिसमें कष, छेद और ताप से शुद्ध धर्मविशेष का
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[निश्चय काल
( सुवर्ण के समान) समीचीनता से वर्णन किया जाता है ऐसे उत्तम श्रुत आदि को निर्व्यूढ कहा जाता है ।
निहरिम- यद्वसतेरेकदेशे विधीयते तत्ततः शरीरस्य निर्हरणात् निस्सारणान्निहरिमम् । ( स्थाना. अभय वृ. २, ४, १०२ ) ।
जो मरण वसति के एकदेश में किया जाता है उसे निहरिम पादपोपगमन कहते हैं। वहां से चूंकि उसके निर्जीव शरीर का निर्हरण किया जाता है, अतः उक्त मरण की 'निहरिम' संज्ञा सार्थक है । निवसनपरिमाण - देखो नियंसण । निवृत्तिगुणस्थान - १. यद् बादरकषायाणां प्रविष्टानामिमं मिथः । परिणामा निवर्तन्ते निवृत्तिबादरोऽपि तत् || ३६ || (योगशा. स्वो विव. १-१६, पृ. ११२ ) । २. प्रपूर्व करणाद्धायाश्चान्तमौहूर्तिक्याः प्रथमसमये जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकाकाशप्रदेशमात्राणि, द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि, तृतीयसमये तदन्यात्यधिक तराणि चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं यावच्चरमसमय इति । तानि च स्थापनायां विषमचतुरत्र क्षेत्रमास्तृणन्ति । XXX प्रथमसमयजघन्यात प्रथमसमयात्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम्, तस्माद् द्वितीयसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम्, तस्मादुत्कृष्टमनन्तगुणेण विशुद्धमिति । एवं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टाच्चरमसमयज वन्यमनन्तगुणविशुद्धम्, तस्मादुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमिति । एकसमयगतानि तु परस्परं षट्स्थान पतितानीति । युगपदेतद्गुणस्थान प्रविष्टानां बहूनां जीवानामन्योऽन्यस्य सम्बन्धिनोऽध्यवसायस्थानस्यास्ति निर्वृत्तिरपीति निवृत्तिगुणस्थानमपीदमुच्यते । ( कर्मस्त. गो. वृ. २) ।
१ बादर कषाय से युक्त होते हुए श्रपूर्वकरण गुणस्थान में प्रविष्ट जीवों के परिणाम चूंकि परस्पर में निवर्तमान होते हैं, अतः इस गुणस्थान को बादरनिवृत्तिगुणस्थान भी कहा जाता है। निश्चय काल - १. तदाधारभूतं द्रव्यं निश्चयकाल: । (पंचा. का. अमृत. वृ. १०० ) । २. णिच्छयकालु पवत्तणलक्खणु (म. पु. पुष्प. २-४, पृ. २२ ) । ३. XXX वट्टणलक्खो य परमट्टो ॥ लोयायासपदे से इक्केवके जे ट्टिया हु इक्केक्का । रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥
६२८, जैन-लक्षणावली
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