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छैद] ४५१, जन-लक्षणाचली
[छेदोपस्थापक मार्गस्थ पार्श्वस्थप्रभतिश्रमणेष्विदम् ।। (प्राचा. सा. छेदन - छेदनं शरीरस्यान्यस्य वा खड्गादिनेति x ६, ४७-४८) । १६. छे दस्तपसा दुर्दमस्याहोरात्र- xxअथवा छेदनं कर्मण: स्थितिघातः । (स्थाना. पञ्चकादिना क्रमेण श्रमणपर्यायश्छेदनम् । (योगशा. अभय. व. १-३४, पृ. १०)। स्वो. विव. ४-६०)। १७. चिरप्रवजितादृप्तशक्त- खड्ग प्रादि से शरीर के छेदने अथवा परिणामशरस्य सागसः। दिनपक्षादिना दीक्षाहापनं छेद- विशेष से कमों की स्थिति के घात करने को मादिशेत् ।। (अन. ध. ७-५४)। १८. शब्दग्रह- छेदन कहते हैं। नासिकांगुलिवरांग-चक्षुरादीनामवयवानां विनाशनं छेदति-देखो सेवार्त्त । तथा यत्रास्थीनि परस्पर छेदः (त. वृत्ति श्रुत. ७-२५); दिवस-पक्ष-मासादि- छेदेन वर्तन्ते, न कीलिकामात्रेणापि बन्धस्तत् षष्ठ विभागेन दीक्षाहापन छेदो नाम प्रायश्चितम् । छेदवति तच्च प्रायो मनुष्यादीनां नित्यं स्नेहा. (त. वत्ति श्रुत.६-२२, भावप्रा. टी.७८ कार्तिके. म्यङ्गादिरूपां परिशीलनामपेक्षते । (जीवाजी. टी. ४४६) । १६. कर्ण-कंबल-नासिकांगुलि-प्रजनन- मलय. व. १३, पृ. १५) । चक्ष गदीनामवयवानां विनाशनं छेदः । (कातिके. जिसमें हड्डियां परस्पर छेद से यक्त हों, कीलों से टी. ३२२) । २०. छेदो नासादिछि द्रार्थः काष्ठ- भी संबद्ध न हों; यह छेदति नाम का छठा स[शलादिभिः कृतः। तावन्मात्रातिरिक्तं तन्न संहनन है। वह प्रायः मनुष्यों आदि के होता है और विधेयं प्रतिमान्वितैः । (लाटीसं. ५-२६५)। सदा तेलमर्दन आदि की अपेक्षा करता है। १ सोना बैठना स्थान और चलना आदि क्रियाओं छेदत्पष्ट-देखो छदवति व सेवात संहनन । में जो सदा साधु की प्रयत्न के बिना प्रवृत्ति होती छेदाहं-छयारिहं जम्मि य पडिसेविए संदसियहै-उन्हें असावधानी से सम्पन्न किया जाता है- पुवपरियायदेसावईयण कीरइ, नाणाविवाहि. यह प्रवृत्ति हिसारूप मानी गई है। शुद्धोपयोगरूप मुनि- संदूसियगोवंगछयणमिव सेससरीरावयव परिपालणत्थं, धर्म के छेद (विनाश) का कारण होने से उसे छेद तहेहावि से सपरियाय रक्ख णत्थं एयं छयरिह । (अशुद्ध उपयोगरूप) कहा गया है । २ कान और (जीतक. चू. ४, पृ. ६ । नाक प्रादि शरीर के अवयवों के काटने का नाम जिस प्रकार अनेक प्रकार की व्याधि से दूषित शरीर छेद है, यह अहिंसाणवत के पांच अतिचारों के के किसी अवयव का शष शरीरावयवों के रक्षणार्थ अन्तर्गत है। दिन, पक्ष प्रयवा मास प्रादि के विभाग छेद किया जाता है-उसे काट कर अलग कर से अपराधी साध के दीक्षाकाल को कम करना, दिया जाता है-उसी प्रकार जिसका सेवन करने इसे छेद कहा जाता है। यह नौ प्रकार के पर दूषित हुई पूर्व पर्याय-श्रामण्य अवस्था काप्रायश्चित्त में से एक है। ८ छेद का अर्थ अपवर्तन कुछ अंश में-दिन, पक्ष व मास प्रादि के क्रम है । यह महावत-प्रारोपण के दिन से लेकर दीक्षा- से- छंद कर दिया जाता है-कम कर दिया पर्यायका किया जाता है। जैसे-जिस साधु के जाता है-वह छेदाहं प्रायश्चित्त कहलाता है। महाव्रत को स्वीकार किये दस वर्ष हए हैं उसके यह दस प्रकार के प्रायचित्त में एक है। अपराध के अनसार कदाचित् पांच दिन का और छेदोपस्थापक-१. तेसु (मूल गुणसू) पमत्तो समणो कदाचित दस दिन का, इस प्रकार छह मास प्रमाण छदोवट्ठावगो होदि । (प्रव. सा. ३-६)। तक दीक्षापर्याय का छेद किया जा सकता है। २. छेत्तण उ परियाग पोराणं जो ठवेइ अप्पाण । इस प्रकार के छेद से दीक्षा का काल उतना कम धम्ममि पंचजामे छेदोवट्ठावणो स खलू ।। (भगवती. हो जाता है।
४ खं., २५, ७, ६, पृ. २६२)। ३. छत्तूण य छेदगति - मृदंग-भेरी-शंखादिशब्दपुद्गलानां छि- परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं । पंचजमे धम्म नानां गतिः छेदगतिः। (त. वा. ५, २४, २१)। सो छेदोवट्ठावगो जीवो।। पंचसं. १-१३०; धव. मृदंग, भेरी और शंख आदि के छेद को प्राप्त हुए पु. १, पृ. २७२ उद् ; गो. जी ४७०)। शब्दपुद्गलों की गति या गमन को छेदगति कहते हैं। १. अट्ठाईश मूलगुणों में प्रमादयक्त साध छेदोयह दस प्रकार की क्रिया में तीसरी है।
पस्थापक होता है।
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