________________
पुलाक] : ७१८, जैन-लक्षणावली
[पुंवेद जीवन्तश्च निःसारतामात्मनः कुर्वन्तीति ग्राह्यम् । नानाद्रुम-लता-गुल्म-पुष्पाण्युपादाय पुष्पसूक्ष्मजीवानसततमप्रमादिन इत्यपरे पठन्ति । जिनोक्ताद्वागमाद्धे- विराधयन्तः कुसुमतलदलावलम्बनसङ्गगतयः (प्रव. तुभूतान्मुक्तिसाधनेषु न प्रमाद्यन्ति जातुचिदिति। 'कुसुमदलपटलमवलम्बमानाः') पुष्पचारणाः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४८); xxx तदेव- (योगशा. स्वो. विव. १-६, पृ. ४१, प्रव. सारो. मन्यतमं मूलगुणं प्रतिसेवमानः पुलाको भवति । (त. वृ. ६०१, पृ. १६८)। ३. पुष्पमस्पृश्य पुष्पोभा. सिद्ध. वृ. ६-४६)। ७. पुलाकशब्देनासारं परि गमनं पुष्पचारणत्वम् । (त. वृत्ति श्रुत. ३, निःसारं धान्यं तण्डुलकणशून्यं पलञ्जिरूपं भण्यते, ३६)। तेन पुलाकेन समं सदृशं यस्य साधोश्चरणं चारित्रं १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु बहुत प्रकार के भवति स पुलाकः, पुलाक इव पुलाक इति कृत्वा। पुष्पों में स्थित जीवों को विराधना न करके उनके अयमर्थः-तपःश्रुतहेतुकायाः सङ्घादिप्रयोजने सबल- ऊपर से चलते हैं उसे पुष्पचारण ऋद्धि कहते हैं । वाहनस्य चक्रवादेरपि चूर्णने समर्थाया लब्धरुप- पुष्पदन्त- पुष्पकलिकामनोहरदन्तत्वात् पुष्पदन्त जीबनेन ज्ञानाद्य तिचारासेवनेन वा सकलसंयमसार- इति । (योगशा. स्वो. विव. ३-१२४)। गलनात पलजिवनिःसारो यः स पुलाकः । (प्रव. पुष्प-कलिका के समान मनोहर दांतों के धारक सारो. व. ७२३)। ८. उत्तरगुणभावनारहिताः नौवें तीर्थंकर को पुष्पदन्त कहते हैं। क्वचित् कदाचित् कथंचिद् व्रतेष्वपि परिपूर्णत्वमल- पुष्पदन्त कुम्भ-ह्रस्वोष्ठः पुष्पदन्तः । (निर्वाणक. भमाना अविशुद्धपुलाकसदृशत्वात् पुलाकाः। (त. पृ. ८)। वृत्ति श्रुत. ६-४६)।
जिस घड़े का मुख छोटा हो वह पुष्पदन्त नामक १ जिन मुनियों का मन उत्तरगुणों की भावनाओं कुम्भ कहलाता है। प्राचार्य के अभिषेक के समय में संलग्न नहीं है और जो व्रतों में भी कहीं व मण्डल पर लिखे जाने वाले १६ कुम्भों में यह किसी समय परिपूर्णता से रहित होते हैं उन मुनियों बारहवां है। को कण से रहित-निरुपयोगी-अशुद्ध धान्य के पुष्पोपहित-१. पुप्फोवहिदं च व्यञ्जनमध्ये पुष्पसमान निःसार होने से पुलाक कहा जाता है। वलिरिव अवस्थितसिक्थम् । (भ. प्रा. विजयो. २ जो जिनप्रणीत पागम से तो पतित नहीं है- २२०)। २. पुष्पोपहितं पुष्पप्रकरवव्यञ्जनमध्यउस पर श्रद्धा रखता है, पर अहिंसादि पांच मूल- प्रकीर्णसिक्थम् । (भ. प्रा. मला. २२०)। गण और छठा रात्रिभोजन व्रत इनमें से किसी एक पुष्पसमूह के समान व्यंजनों के मध्य में स्थित सिक्थ व्रत का दूसरे की प्रेरणा से पालन करता है वह (धान्यकण) को पुष्पोपहित कहा जाता है। पुलाक मुनि कहलाता है।
पुंवेद-देखो पुरुषवेद । १. यस्योदयात् पौंस्नान् पुल्लिङ्ग-देखो पुरुषलिङ्ग ।
भावानास्कन्दति स वेदः । (स. सि. ८-६; त. वा. पुल्लिङ्गसिद्ध-पुल्लिङ्गे शरीरनिर्वृत्तिरूपे व्यव- ८, ६, ४) । २. पुरुषवेदमोहोदयात् अनेकाकारास स्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुल्लिङ्गसिद्धाः । (प्रज्ञाप. स्त्रीष्वभिलाषः पाम्रफलाभिलाषः इवोद्रिक्तश्लेष्मणः मलय. वृ. ७, पृ. २२)।
तथा सङ्कल्पजास्वपीत्यादि। (त. भा. सिद्ध. वृ. ८, जो शरीर की रचनारूप पुल्लिग में--पुरुषशरीर में १०, पृ. १४२)। ३. येषामुदयेन पुद्गलस्कन्धानां -अवस्थित रहते हुए मुक्ति को प्राप्त हुए हैं वे वनितायामाकांक्षा जायते तेषां पुवेद इति संज्ञा। पुल्लिगसिद्ध कहलाते हैं।
(मूला. वृ. १२-१६२)। ४. पुंवेदं पुंभावापत्तिपष्टि-पष्टि: पण्योपचयः xxx। (षोडश. निमित्तं 'वेदाख्यं नोकषायवेदनीयम् । (भ. प्रा. ३-४)।
मूला. २०६७)। ५. यदुदयात् पुंस्त्वपरिणामान् पुण्य के संचय को पुष्टि कहते हैं।
प्राप्नोति स वेदः । (त. वृत्ति श्रुत. ८-६)। पुष्पचारण-१. अविराहिदूण जीवे तल्लीणे बहु- १ जिसके उदय से जीव पुरुष के भावों को प्राप्त विहाण पुप्फाणं । उवरिम्मि जं पसप्पदि सा रिद्धी करता है उसे पुवेद कहते हैं। २ पुरुषवेदमोहनीय पुप्फचारणा णाम ॥ (ति. प. ४, १०३६) । २. के उदय से अनेक प्राकार वाली स्त्रियों के विषय
मनि क
रुषलिन निवृत्ति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org