________________
पुंवेद]
में इस प्रकार श्रभि लाषा होती है जिस प्रकार कि कफ के उद्रेक से ग्राम फल की अभिलाषा हुआ करती है । उक्त पुंवेद के उदय से संकल्पजात स्त्रियों के विषय में भी अभिलाषा होती है । पूजक - १. भव्यात्मा पूजकः शान्तो वेश्यादिव्यसनोज्झितः । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स शूद्रो वा सुशीलवान् ॥ ( भावसं वाम ४६५ ) । २. नित्यपूजाविधायी य: पूजकः स हि कथ्यते । द्वितीयः पूजकाचार्य: प्रतिष्ठादिविधानकृत् ॥ ब्राह्मणादिचतुवर्ण्य श्राद्यः शीलव्रतान्वितः । सत्य - शौच- दृढाचारो हिंसाद्यव्रतदूरगः ॥ जात्या कुलेन पूतात्मा शुचिर्बन्धु -सुहृज्जनैः । गुरूपदिष्टमंत्रेण युक्तः स्यादेष पूजकः ॥ ( धर्मसं. श्री. ६, १४२ - ४४ ) । १ जो भव्य जीव शान्त - क्रोधादि कषयायों से रहित - होकर वेश्यादि व्यसनों का त्याग कर चुका है वह पूजक — पूजा का अधिकारी होता है । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा उत्तम शीलवान् शूद्र होना चाहिए । पूजकाचार्य ( प्रतिष्ठाचार्य ) - इदानीं पूजकाचार्यलक्षणं प्रतिपाद्यते । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यो नानालक्षणलक्षितः ॥ कुल-जात्यादिसंशुद्धः सदृष्टिर्देशसंयमी । वेत्ता ज्ञिनागमस्याऽनालस्यः श्रुतबहुश्रुतः ॥ ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गम्भीरो विनयान्वितः । शौचाऽऽचमनसोत्साहो दानवान् कर्मकर्मठः । साङ्गोपाङ्गयुतः शुद्धो लक्ष्य- लक्षणवित् सुधीः । स्वदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सत्क्रियारतः ॥ वारिमंत्रव्रतस्नातः प्रोषधव्रतधारकः । महाभिमानी मौनी च त्रिसन्ध्यं देववन्दकः ॥ श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षाशिक्षागुणान्वितः । क्रियाषोडशभिः पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृतः । न हीनाङ्गो नाधिकाङ्गो न प्रलम्बो न वामनः ॥ न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नातिबालकः ॥ न क्रोधादिकषायाढ्यो नार्थार्थी व्यसनी न च ।
[ना]न्त्यास्त्रयो न तावाद्यौ श्रावकेषु न संयमी ॥ ईदृग्दोषभृदाचार्यः प्रतिष्ठां कुरुतेऽत्र चेत् । तदा राष्ट्रं पुरं राज्यं राजादिः प्रलयं व्रजेत् ॥ कर्ता फलं न चाप्नोति नैव कारयिता ध्रुवम् । ततस्तल्लक्षणश्रेष्ठः पूजका चार्य इष्यते ॥ ( धर्मसं. श्री. ६-१४५ से १५४) । जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, श्रथवा वैश्य होकर अनेक लक्षणों से युक्त हो; कुल व जाति आदि से शुद्ध हो, सम्यग्दृष्टि होकर देशव्रती हो, जिनागम का ज्ञाता
Jain Education International
७१६, जैन- लक्षणावली
[पूजन
हो, श्रालस्य से रहित हो, बहुत श्रुत को सुन चुका हो, सरल हो, वक्ता हो, प्रसन्न होता हुआ भी गम्भीर हो, विनयशील हो; शौच व श्राचमन में उत्साहसहित हो, दाता हो, क्रियाशील हो, अंगउपांगों से युक्त हो; लक्ष्य-लक्षण का जानकार हो, विवेकी हो, स्वदारसन्तोषी या ब्रह्मचारी हो, नीरोग हो, सदाचारी हो; जलस्नान से युक्त होकर मंत्र का ज्ञाता व व्रत से सहित हो; प्रोषधव्रत का धारी हो, महा अभिमानी हो-स्वाभिमानी होकर दैन्यभाव से दूर रहने वाला हो, मौन रखता हो, तीनों सन्ध्याओं में देववन्दना करने वाला हो, श्रावक के प्राचार का परिपालक हो, दीक्षा- शिक्षागुण से 'युक्त हो, सोलह क्रियानों से पवित्र हो, ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) आदि संस्कारों से सहित हो, न हीनांग हो श्रौर न अधिक श्रंग वाला हो; न लम्बा हो, न बौना हो; न कुरूप हो, न मूर्ख हो, न बुड्ढा हो, न बालक हो, क्रोधादिकषायों वाला न हो, धनार्थी न हो, व्यसनी न हो, ग्यारह श्रावकों में न अन्तिम तीन — परिग्रहत्याग प्रतिमाधारी आदि-हों, न श्रादि के दो ( दर्शनिक व व्रती) हों; तथा संयमी (मुनि) न हो । यदि श्राचार्य उक्त दोषों (हीनांगादि) से दूषित होता है तो राष्ट्र, नगर, राज्य व राजा आदि का नाश हो सकता है; तथा वैसा होने पर न कर्ता हो फल को पाता है और न कराने वाला भी, इसी कारण पूजक श्राचार्य उपर्युक्त लक्षणों से श्रेष्ठ माना जाता है ।
पूजन- देखो पूजा |
पूजा - १. पूजा च द्रव्य भावसंकोचः, तत्र कर - शिरः पादादिसन्यासो द्रव्यसंकोचः, भावसंकोचस्तु विशुद्धस्य मनसो नियोग इति । (ललितवि. पृ. ६ ) ; पूजनं गन्ध - माल्यादिभिः समभ्यर्चनम् । ( ललितवि. पृ. ७७ ) । २. वस्त्र - माल्यादिजन्या पूजा । (श्राव. नि. हरि. वृ. २१, पृ. ४०६ ) । ३. स्नान - विलेपन - सुसुगन्धिपुष्प-धूपादिभिः शुभैः कान्तम् । विभवानुसारतो यत् काले नियतं विधानेन ॥ अनुपकृतपरहितरतः शिवदस्त्रिदशेशपूजितो भगवान् । पूज्य हितकामानामिति भक्त्या पूजनं पूजा ।। ( षोडसक. १-२ ) । ४. एदाहि ( चरु-बलि- पुप्फ-फल-गंधधूव-दीवादी हि ) सह इंदधय- कप्परुक्ख महामह सव्वदोभद्दादिमहिमा विहाणं पूजा णाम । ( धव. पु.
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org