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क्षत्रसामायिक] ४०१, जेन-लक्षणावली
[क्षेत्रानुपूर्वी भी अभेदं के उपचार से क्षेत्रसंसार कहा जाता है, (२४) तीर्थंकरों की मध्यमा क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा जैसे रसोई व गुणनिका आदि।
जाननी चाहिए। क्षेत्रसामायिक-१. जयर-खेट-कव्वड-मडंव-पट्टण- क्षेत्रातिक्रम-क्षेत्र स्याद्वसतिस्थानं धान्याधिष्ठानदोण मुह-जणवदादिसु राग-दोसणिरोहो सगावास- मेव वा। गवाद्यागारमात्रं वा स्वीकृतं यावदाविसयसंपरायणिरोहो वा खेत्तसामाइयं णाम । त्मना ।। ततोऽतिरिक्ते लोभान्मूच्र्छावृत्तिरतिक्रमः । (जयध. १, पृ. १८) । २. कानिचित् क्षेत्राणि न कर्तव्यो व्रतस्थेन कुर्वतोपधितूच्छताम् ।। (लाटीसं. रम्याणि अाराम-नगर-नदी-प-वापी-तडाग जनप
६,६८-६९)। दोपचितानि, कानिचिच्च क्षेत्राणि रूक्ष-कण्टक
क्षेत्रका अर्थ रहने का स्थान, धान्य का अधिष्ठान विषम-विरसास्थि-पाषाणसहितानि जीर्णाटवी-शष्क
(खेत) अथवा गायों आदि का बाड़ा होता है। परिनदी मरुसिकतापुंजादिबाहुल्याति, तेषूपरि राग- ग्रहपरिमाण में जितने क्षेत्र को स्वीकार किया गया द्वेषयोरभावः क्षेत्रसामायिकं नाम । (मूला. वृ. ७, है उससे अधिक में लोभ के वश प्रासक्ति रखना, १७)। ३. ग्राम-नगर-वनादिक्षेत्रेषु इष्टानिष्टेषु
यह उस व्रत का क्षेत्रातिक्रम नाम का अतिचार राग-द्वेषनिवृत्तिः क्षेत्रसामायिकम् । (गो. जी. म. प्र.
होता है । व्रती को उसका प्रतिक्रमण नहीं करना टी. ३६७)। ४. क्षेत्रसामायिकमाराम-कण्टक- चाहिए। वनादिषु शुभाशुभक्षेत्रेषु समभाव: । XXXक्षेत्र
- क्षेत्राननुगामी - यत्क्षेत्रान्तरं न गच्छति स्वोत्पन्नसामायिक सामायिकपरिणतजीवाधिष्ठितं स्थान
क्षेत्रे एव विनश्यति, भवान्तरं गच्छतु मा वा, मूर्जयन्त-चम्पापुरादि। (अन.ध. स्वो. टी. ८-१६)।
तत्क्षेत्राननुगामि । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ५. णाम-गाम-णयर-वणादिखेत्तेसु इट्ठाणि? सु राय
३७२)। दोसणियट्टी खेत्त सामाइयं । (अंगप. पू. ३०६)।
जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र से अन्य क्षेत्र १ नगर, खेट, कर्वट, मटंब, पट्टन, द्रोणमुख और
___ में स्वामी के साथ नहीं जाता है, किन्तु वहीं पर जनपद आदि के विषय में राग-द्वेष न करना,
नष्ट हो जाता है। वह क्षेत्राननुगामी अवधिज्ञान अथवा अपने निवासस्थानविषयक कषाय को दूर
कहलाता है। वह अपने उत्पन्न होने के भव से करना, इसका नाम क्षेत्रसामायिक है।।
अन्य भव में जा भी सकता है और कदाचित् न क्षेत्रस्तव-१. कैलाश-सम्मेदोर्जयन्त-पावा-चम्पा
भी जाय। नगरादिनिर्वाणक्षेत्राणां समवस तिक्षेत्राणां च स्तवनं क्षेत्रस्तवः । Xxx चतुविशतिस्तवसहितं क्षेत्र
क्षेत्रानुगामी-स्वोत्पन्नक्षेत्रादन्यस्मिन् क्षेत्रे विहXXXक्षेत्रस्तवः । (मला. व. ७-४१)। २.
रन्तं जीवमनुगच्छति, भवान्तरं नानुगच्छति, क्षेत्रस्तवोऽहतां स स्यात्तत्स्वर्गावतरादिभिः । पतस्य तत्क्षेत्रानुगामि । (गो. जी.. प्र. व जी. प्र. टी. पूर्वनाद्रयादेर्यत्प्रदेशस्य वर्णनम् । (अन. ध. ८,
३७२)।
जो अवधिज्ञान अपनी उत्पत्ति के क्षेत्र से अन्य क्षेत्र ४२)।
में स्वामी के जाने पर उसके साथ रहता है-नष्ट १ कैलाश पर्वत, सम्मेदाचल, ऊर्जयन्तगिरि, पावापुर
नहीं होता, उसे क्षेत्रानुगामी अवधि कहते हैं। यह और चम्पापुर आदि निर्वाणभूमियों एवं समव. सरणस्थानों के गुणकीर्तन को क्षेत्रस्तव कहते हैं ।
अवधिज्ञान भवान्तर में साथ नहीं जाता है। अथवा चौवीस तीथंकरों के स्तवन सहित क्षेत्र को क्षेत्रानुपूर्वी-द्रव्यावगाहोपलक्षितं क्षेत्रमेव क्षेत्राक्षेत्रस्तव जानना चाहिए।
नुपूर्वी । (अनुयो. हरि. वृत्ति पृ. ४४)। क्षेत्राख्या प्रतिष्ठा-ऋषभाद्यानां तु तथा सर्वेषा- द्रव्य (तीन प्रादि परमाणुओं के स्कन्ध) को अवमेव मध्यमा ज्ञेया । (षोडश. ८-३)।
गाहना (तीन-चार प्रादि प्रदेशों) से उपलक्षितव्यक्त्याख्या, क्षेत्राख्या और महाख्या के भेद से परिचय में पाया हया-क्षेत्र ही क्षेत्रान पूर्वी प्रतिष्ठा तीन प्रकार की है। उनमें ऋषभादि सभी कहलाता है।
ल. ५१
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