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क्षेत्रानुयोग] ४०२, जैन-लक्षणावली
[क्षेत्राहार क्षेत्रानुयोग-तथा क्षेत्रस्यकस्य जम्बूद्वीपादेरनुयोगो च चक्रवर्तिविजयेषु । (त. भा. ३-१५)। २. यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, तस्या जम्बूद्वीपलक्षणक- क्षेत्रार्याः काशी-कोशलादिषु जाताः। (त. वा. ३, क्षेत्रव्याख्यानरूपत्वात् । बहूनां क्षेत्राणामनुयोगो ३६, २) । ३. क्षेत्रार्याः पञ्चदशसू जायन्ते कर्मयथा द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिः, बहूनां द्वीप-समुद्राणां तया भूमिषु । तत्रेह भारते सार्धपञ्चविंशतिदेशजा: ॥ व्याख्यानात् । क्षेत्रणानुयोगो यथा पृथिवीकायिका- (त्रि. श. पु. च. २, ३, ६६५)। ४. कौशलदिसङ्ख्याव्याख्यानं जम्बूद्वीपं प्रस्थकं कृत्वा। उक्त काश्यवन्ति-अंग-बग-तिलंग-कलिंग-लाट-कर्णाट-भोटच-जम्बुद्दीवपमाणा पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं। गोड-गुर्जर-सौराष्ट्र-मरु-वाग्जड-मलय-मालव - कुंकएवं मविज्जमाणा हवंति लोगा असंखेज्जा ॥ क्षेत्र णाभीर - सौरभस - काश्मीर-जालंघरादिदेशोद्भवाः रनुयोगो यथा बहु-द्वीपसमुद्र प्रमाणं प्रस्थकं कृत्वा क्षेत्रार्याः । (त. वृत्ति श्रत. ३-३६)। पथिवीकायादिसङ्ख्याभणनम् । उक्तं च-खेत्तेहि १जो पन्द्रह कर्मभूमियों में, तथा भरतक्षेत्रों में बहुदीवेहिं पुढविजियाणं तु पत्थयं काउं । एवं वर्तमान साढ़े पच्चीस देशों में तथा शेष क्षेत्रगत मविज्जमाणा हवंति लोगा असंखेज्जा ।। क्षेत्रेऽनु- चक्रवतिविजयों में उत्पन्न हुए हैं वे क्षेत्रार्य कहे जाते योगस्तिर्यग्लोके भरतादो वा, क्षेत्रेष्वनुयोगोऽर्द्धतृती- हैं। २ काशी और कौशल प्रादि देशों में उत्पन्न येषु द्वीप-समुद्रेषु । (प्राव. नि. मलय. व. १२६, हुए मनुष्य क्षेत्रार्य कहलाते हैं। पृ. १३१)।
क्षेत्रावग्रह-१. पुवावरायया खलु सेढी लोगस्स अनयोग नाम विशेष विवरण या व्याख्यान का है। मझयारम्मि । जा कुणइ दुहा लोग दाहिण तह प्रकृत में यह क्षेत्रानुयोग कई प्रकार का है। जैसे- उत्तरद्धं च ।। साधारण प्रावलिया मज्झम्मि अवद्ध१ जम्बूद्वीप आदि किसी एक ही क्षेत्र का अनु- चंदकप्पाणं । अद्धं च परक्खित्ते तेसि श्रद्धं च सविखयोग । यथा-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति । २ बहुत क्षेत्रों का ते ।। सेढीइ दाहिणेणं जा लोगो उड्ढ मो सकविअनुयोग । जैसे-द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति । ३ एक क्षेत्र माणा । हेट्ठा वि य लोगंतो खित्तं सोहम्मरायस्स ।।
रा अनुयोग । जैसे-जम्बूद्वीप को प्रस्थक (वृहत्क. ६७२-७४)। २. यो यत्क्षेत्रमवगृह्णाति (माप का एक उपकरण) करके पृथिवीकायिक स क्षेत्रावग्रहः। स च समन्तत: सक्रोशं योजनमेकप्रादि जीवों की संख्या का व्याख्यान । ४ वहत से स्मिन् क्षेत्रेऽवगृहीते सतीति । (प्रव. सारो. १२६) । क्षेत्रों के द्वारा अनुयोग। जैसे-बहुत द्वीप-समद्रों १ लोक के मध्य में पूर्व-पश्चिम लंबी एक प्रदेशरूप के प्रमाण को प्रस्थक करके पृथिवीकायिकादि जीवों श्रेणि है जो लोक को दो भागों में विभक्त करती की संख्गा का विवरण । ५ एक क्षेत्र या बहुत से है-दक्षिणार्ध और उत्तरार्थ। इनमें दक्षिण अर्धक्षेत्रों में अनयोग। जैसे-तिर्यग्लोक में या भरतादि लोक का अधिपति सौधर्म और उत्तर प्रलोक का क्षेत्रों अथवा अढाई द्वीप-समद्रों में।
अधिपति ईशान इन्द्र है। प्रचन्द्राकार सौधर्म व क्षेत्राभिग्रह-अ उ गोयरभूमी एलुगविक्खंभ- ईशान कल्पों में जो विमानपंक्ति है वह साधारण मित्तगहणं च । सग्गाम परग्गामे एव इय घराय है-पूर्व-पश्चिम दिशागत तेरह प्रस्तरों में कुछ खित्तम्मि । (बहत्क. भा. १६४६)।
सौधर्म इन्द्र के और कुछ ईशान इन्द्र के हैं। इत्यादि ऋज्वी, गत्वाप्रत्यागतिका, गोमत्रिका, पतगवीथिका, प्रकार का जो क्षेत्रविभाग है, यह देवेन्द्र का क्षेत्रापेडा, अर्धपेडा, अभ्यन्तरशम्बूका और बहिःशम्बू. वग्रह है। अभिप्राय यह कि इन्द्र व चक्रवर्ती प्रादि का; इन पाठ गोचरभूमियों का भिक्षार्थ नियम जितने क्षेत्र में अपना प्राधिपत्य रखते हैं, उसे करना, कमर के प्रमाण भोजन लेने का नियम क्षेत्रावग्रह कहा जाता है। करना तथा अपने गांव में या अन्य के गांव में क्षेत्राहार-क्षेत्राहारस्तु यस्मिन् क्षेत्रे पाहारः इतने घर तक जाऊंगा इत्यादि प्रकार का नियम क्रियते उत्पद्यते व्याख्यायते वा। यदि वा नगरस्य करना; इसका नाम क्षेत्राभिग्रह है।
यो देशो धान्येन्धनादिनोपभोग्यः स क्षेत्राहारः । क्षेत्रायं-१. क्षेत्रार्याः पञ्चदशसु कर्मभूमिष जाताः तद्यथा-मथुरायाः समासन्नो देशः परिभोग्यो तथा भरतेषु अर्धषड्विंशतिषु जनपदेषु जाता शेषेषु मथुराहारो मोढेरकाहाराः खेडाहार इत्यादि ।
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