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क्षत्रोज्झित] ४०३, जैन-लक्षणावली
[क्षेम-क्षेमरूप (सूत्रकृ. नि. शी. व. २, ३, १६६, पृ. ८७)। जाता है उसे क्षेत्रोपक्रम कहते हैं। यथा-हल जिस क्षेत्र में प्राहार किया जाता है, उत्पन्न होता और कुलिक (जिस काष्ठविशेष से घास प्रादि को है, अथवा व्याख्यान किया जाता है उसे क्षेत्राहार निकाला जाता है वह मारवाड़-प्रसिद्ध एक खेती कहते हैं। अथवा नगर का जो देश (भाग) धान्य का उपकरण) आदि के द्वारा खेतों का जो उपक्रम व इन्धन प्रादि के द्वारा उपभोग के योग्य होता है किया जाता है- उन्हें बीज बोने आदि के योग्य वह भी क्षेत्राहार कहलाता है।
बनाया जाता है, यह परिकर्म रूप में क्षेत्रोपक्रम क्षेत्रोज्झित - अमुगिच्चगं ण भुंजे उवणीयं तं च है। तथा हाथी के बन्धन प्रादि से-उनके मलकेणई तस्स । जं बुज्झे कप्पडिया स देश बहवत्थदेसे मूत्र आदि के द्वारा-जो खेतों का उपक्रम किया वा ॥ (बृहत्क. ६१२)।
जाता है-उन्हें विनष्ट किया जाता है, यह वस्तुमैं प्रमक देश के वस्त्र का उपभोग न करूंगा, ऐसी
नाशरूप में क्षेत्रोपक्रम है। प्रतिज्ञा करने के पश्चात यदि कोई उसे वही वस्त्र क्षेत्रोपसम्पत्-१. संजम-तव-गुण-सीला जम-णियभेंट करे तो उसके नहीं ग्रहण करने को क्षेत्रोज्झित मादी य जम्हि खेत्तम्हि । वडुति तम्हि वासो खेत्ते कहते हैं। अथवा कार्पटिक-अपने देश की ओर उवसंपया णेया ।। (मूला. ४-१४१) । २. यस्मिन् लौटकर पाने वाले या अपने देश से अन्य देश की क्षेत्र संयम-तपोगण-शीलानि यम-नियमादयश्च वर्द्धमोर जाने वाले–बीच में चोरों के भय आदि से न्ते तस्मिन् वासो यः सा क्षेत्रोपसम्पत् । (मूला. जो वस्त्रों का परित्याग कर देते हैं, अथवा वस्त्र- व. ४-१४१)। प्रचुर देश में अन्य सुन्दर वस्त्र को लेकर पुराने को १जिस क्षेत्र में रहने पर संयम, तप, गुण, शील, यम छोड़ देना, इत्यादि सब क्षेत्रोज्झित कहलाता है। और नियमादिक वृद्धि को प्राप्त होते हैं उस क्षेत्र क्षेत्रोत्तर- क्षेत्रोत्तरं मेर्वाद्यपेक्षया यदुत्तरम् । में निवास करने को क्षेत्र-उपसम्पत् कहा जाता है। (उत्तरा. शा. १, पृ. ३)।
क्षेम-क्षेमं च लब्धपालनलक्षणम् । (ललितवि. मेरु प्रादि की अपेक्षा जो उत्तरदिशागत क्षेत्र है वह म. पं. पृ. ३०)। . क्षेत्रोत्तर कहलाता है।
प्राप्त हुए राज्यादि के विधिपूर्वक रक्षण करने को क्षेत्रोत्सर्ग-यत्क्षेत्रं दक्षिणदेशाद्युत्सृजति, यत्र वा- क्षेम कहते हैं। ऽपि क्षेत्र उत्सर्गो व्यावय॑ते, एष क्षेत्रोत्सर्गः ।
क्षेमंकर-क्षेमं' शान्तिः रक्षा, तत्करणशीलः क्षेम. (प्राव. हरि. व. १४५२, पृ. ७७१)।
करः । (सूत्रकृ. सू. शी. व. २. ६, ४, पृ. १४१)। दक्षिण आदि जिस क्षेत्र का त्याग किया जाता है,
क्षेम नाम शान्ति या रक्षा का है। जिसका स्वभाव अथवा जिस क्षेत्र में उत्सर्ग का वर्णन किया जाता
शान्ति या रक्षा करने का है उसे क्षेमकर कहा है, उसे क्षेत्रोत्सर्ग कहते हैं। क्षेत्रोपक्रम-१. से कि तं खेत्त वक्कमे ?, २ जण्णं
जाता है। हल-कुलियाईहिं खेत्ताई उवक्कमिज्जति से तं क्षेम-प्रक्षेमरूप- तथा क्षेमोऽक्षेमरूपस्तु सः (ज्ञाखेत्तोवक्कमे । (अनयो. सू. ६७)। २. क्षेत्रस्योप- नादिसमन्वितः) एव भावसाधुः कारणिकद्रव्यलिङ्गक्रमः परिकर्म-विनाशकरणं क्षेत्रोपक्रमः । xxx रहितः। (सूत्रकृ. नि. शी. व. १, ११, १११.प्र. यदत्र हल-कूलिकादिभिः क्षेत्राण्यूपक्रम्यन्ते-बीजव. १९९)। पनादियोग्यतामानीयन्ते स कर्मणि क्षेत्रोपक्रमः, अन्तरंग में ज्ञान-संयमादि के धारक, किन्तु बाह्य में प्रादिशब्दाद् गजेन्द्रबन्धनादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते साधुपदोचित प्रयोजनीभूत द्रव्यलिंग से रहित साप विनाश्यन्ते स वस्तुनाशे क्षेत्रोपक्रमः, गजेन्द्र मूत्रपुरी- को क्षेम-प्रक्षेमरूप भावमार्ग कहते हैं । षादिदग्धेष हि क्षेत्रेष बीजानामप्ररोहणात् विन- क्षेम-क्षेमरूप-ज्ञानादिसमन्वितो द्रव्यलिङ्गोपेतश्च ष्टानि क्षेत्राणि इति व्यपदिश्यन्ते । (अनुयो. मल. साधुः क्षेमः क्षेमरूपश्च । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. १, हेम. व. ६७, पृ. ४८)।
११, १११, पृ. १६६)। २ खेत का जो परिकर्म (संस्कार) और विनाश किया अन्तगङ्ग में ज्ञानादि से युक्त तथा बाह्य में द्रव्य
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