________________
दृष्टिविष! ]
१५० क्रियावाददृष्टियों; मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर और मौद्गलायन श्रादि ८४ अक्रियावाददृष्टियों; साकल्य, वल्कल, कुथुमि, सात्यमुग्रि, नारायण, कठ, माध्यंदिन, मोद, पैप्पलाद, वादरायण, श्रम्बष्ठ, कृदोविकायन, वसु और जैमिनि आदि ६७ प्रज्ञानिकदृष्टियों; तथा वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, श्रौपमन्य, इन्द्रदत और प्रस्थूण श्रादि ३२ वैनयिकदृष्टियों; इन ३६३ दृष्टियों की प्ररूपणा और उनका निग्रह किया जाता है उसे दृष्टिवाद अंग कहा जाता है । दृष्टिविषा - १. जीए जीनो दिट्ठो महासिणा रोसभरिदहिदएण | अहिदट्टं व मरिज्जदि दिट्ठि विसा णाम सा रिद्धी ॥ ( ति प ४-१०७९) । २. उत्कृष्ट तपसो यतयः क्रुद्धा यमीक्षन्ते स तदैवोग्रविषपरीतो म्रियते ते दृष्टिविषाः । (त. वा. ३, ३६, ३, पृ. २०४; चा. सा. पृ. ६६) । ३. दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणम्, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्ति - दर्शनात् । तत्साहचर्यात् कर्मणोऽपि । रुट्ठो जदि जोएदि चितेदि किरियं करेदि वा 'मारेमि'त्ति तो मारेदि, अण्णं पि श्रसुहकम्मं संरंभपुष्वावलोयणेण कुणमाणो दिट्ठिविसो णाम । ( धव. पु. ६.८६ ) । ४. तपोबला मुनयः क्रुद्धाः सन्तो यमक्षितमीक्षते स पुमान् तत्क्षणादेव तीव्ररसपरीतः पंचत्वं प्राप्नोति, एवंविधं सामथ्यं येषां ते दृष्टिविषाः । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से क्रोधित महर्षि के द्वारा देखा गया जीव सर्पदष्ट के समान मरण को प्राप्त हो जाता है उसे दृष्टिविषा ऋद्धि कहते हैं । दृष्टिसंमोह - गुणतस्तुल्ये तस्ये संज्ञाभेदागमान्यथादृष्टिः । भवति यतोऽसावधमो दोषः खलु दृष्टिसंमोहः । ( षोडशक ४ - ११) ।
१ अभ्यन्तर हेतुभूत देवगति नामकर्म का उदय होने पर जो बाह्य वैभव के साथ द्वीप, पर्वत एवं समुद्र प्रादि प्रदेशों में इच्छानुसार क्रीडा किया करते हैं वे
गुण- उपकारफल - को प्रपेक्षा विवक्षित वो वस्तुनों बेव कहलाते हैं । २ विव नाम प्राकाश का है, उसमें
जो रहते हैं, उन्हें देव कहा जाता है ।
में तत्व के समान होने पर भी जिस दोष के कारण प्राणी नामभेद के श्राश्रय से श्रागम के विषय में विपरीत बुद्धि को प्राप्त होता है वह निकृष्ट दृष्टि संमोह दोष है । अथवा अहिंसा एवं प्रशम आदि के तत्त्वों के अन्य दर्शनों में भी समान होने पर जिस दोष के कारण परिभाषाभेदमात्र से प्राणी प्रागमों
Jain Education International
[देव (अर्हन्)
में अन्यथा भाव को प्राप्त होता है उसका नाम दृष्टिसंमोह है ।
५३२, जैन-लक्षणावली
देयशुद्ध दान-देयं शुद्धं द्विचत्वारिशद्दोष रहितं भवेत् । (त्रि.श. पु. च. १, १, १८३ ) ' ब्यालीस दोषों से रहित श्राहार आदि को शुद्ध देयदेने योग्य द्रव्य - कहा जाता है ।
देव (सुर ) - १. देवगतिनामकर्मोदये सत्यभ्यन्तरे तो बाह्यविभूतिविशेष: द्वीपाद्रि-समुद्रादिषु यथेष्टं दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । ( स. सि. ४ - १ ) । २. देवा णाम दीवं भागासं, तंमि आगासे जे वसंति ते देवा: । ( दशवं. चू. पृ. १५) । ३. देवगतिनामकर्मोदये सति द्युत्याद्यर्थावरोधाद् देवाः । अन्तरङ्गहेतो देवगतिनामकर्भोदये सति बाह्यद्युत्यादिक्रियासम्बन्धमन्तर्नीय दीव्यन्तीति देवाः इति व्यपदिश्यन्ते । (त. वा. ४, १, १ ) । ४ तत्र दीव्यन्तीति देवाः, निरुपमक्रीडामनुभवन्तीत्यर्थः । ( नन्दी. हरि. वू. पृ. २९ ) । ५. कीडंति जदो णिच्चं गुणेहि अट्ठ हि दिव्वभावेहि । भातदिव्वकाया तम्हा ते वणिया देवा ।। (प्रा. पंचसं. १-६३; धव. पु. १, पृ. २०३ उब्. ; गो. जी १५० ) । ६. प्रणिमाद्यष्टगुणावष्टम्भवलेन दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । ( धव. पु. १, पृ. २०३ ) । ७. देवगतिनामकर्मोदये सति दीव्यन्तीति देवाः । (त. इलो. ४-१ ) । ८. केसट्ठि मंस नह-रोम - रुहिर-वस-चम्म- मुत्त- पुरिसेहि । रहिमा निम्मलदेहा सुगंधिनीसासगयलेवा । अंतमुहुत्तेणं चित्र पज्जत्ता तरुण रिससंकासा । सव्वंग भूषणधरा श्रजरा निरुमा समा देवा || अणिमिसनयणा मणकज्जसाहणा पुष्कदामअभिलाणा । चउरंगुलेण भूमि न छिवंति सुरा जिणा विति ॥ ( संग्रहणी. १४६-४८) ।
देव ( श्रर्हन्) - देखो जिनदेव । १. दीव्यते - स्तूयते भक्तिभरनिर्भरामरप्रभुप्रभृतिभिर्भव्यं रनवरत मिति देवः, स च क्लेश-कर्म विपाकशते [काशयै ] रपरामृष्टः पुरुषविशेषः । (ध. वि. मु. बु. १ - १८ ) । २. सर्वज्ञो
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org