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निकाचित]
मलय. वृ. १, पृ. २) । ३. निकाचना पुनः सर्वकरयोग्यत्वमिति । (षडशी. हरि. वृ. ११, पृ. १५ ) । १ पूर्वस्पृष्ट कर्म को जो तपाकर घन से कूटी गई लोहे की शलाकाों के सम्बन्ध के समान क्रिया होती है उसे निकाचना कहते हैं । ३ कर्म की सब करणों के प्रयोग्य अवस्था का नाम निकाचना है । निकाचित - १. जं पदेसग्गं ण सक्कमोकट्टिदुमुक्क पिकामुदए दादुं वा तणिकाचिदं णाम ( धव. पु. ६, पृ. २३६); जं पदेसगं श्रोकडिदु णो सक्कं उक्कडिदु णो सक्कं अण्णपर्याड संकामिदं णो सक्कं उदए दादु णो सक्कतं पदेसग्गं णिकाचिदं णाम । ( धव. पु. १६, पृ. ५१७ ) ; जं पदेसग्गं ण वि श्रोकडिज्जदि [ण वि उक्कडिज्जदि ] ण वि संकामिज्जदि ण वि उदए दिज्जदि तं णिकाचिदं णाम । (धव. पु. १६. पू. ५७६) । २.X X X चउसु वि दादु कमेण णो सबकं । XX X णिकाचिदं होदिजं कम्मं ॥ ( गो . क. ४४० ) । ३. उदयावल्यां निक्षेप्तुं संक्रम वितुमुत्कर्षयितुमपकर्षयितुं चाशत्रय तन्निकाचितं नाम । ( गो . क. जी. प्र. टी. ४४० ) ।
१ कर्म के जिस प्रदेशपिण्ड का न श्रपकर्षण हो सकता है, न उत्कर्षण हो सकता है, न अन्य प्रकृति रूप संक्रमण हो सकता है, और न उदय हो सकता है उसे निकाचित कहा जाता है । निकाचिता - देखो निकाचित । निकाचिता तु स्पृष्टानन्तरभाविनी XX X बद्धं नामात्मप्रदेशः सहश्लिष्टम् । यथा सूचयः कलापीकृताः परस्परेण बद्धा कथ्यन्ते, ता एवाग्नौ प्रक्षिप्तास्ताडिताः समभिव्यज्यमानान्तराः स्पृष्टा इति व्यपदिश्यन्ते, ता एव यदा पुनः पुनः प्रताप्य धनं घनेन ताडिता: प्रन
स्वत्रिमागा एकपिण्डतामितास्तदा निकाचिता इति व्यपदेश मश्नुवते, एवं कर्माप्यात्मप्रदेशेषु योजनीयम् । ( त. भा. सिद्ध वृ. १-३, पू. ३८) । जिस प्रकार लोहे की शलाकाओं को एकत्रित करने पर वे परस्पर बद्ध कही जाती हैं, फिर उन्हीं को प्राग में डालकर ताड़ित करने पर अन्तर के स्पष्ट रहते हुए स्पृष्ट कहा जाता है, तत्पश्चात् उन्हों को जब बार-बार तपा कर धन से खूब ताडित करते हैं तब अन्तर से रहित होकर वे एकपिण्ड बन जाती हैं, उनकी इस अवस्था को
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[ निकृति
निकाचित कहा जाता है। इसी प्रकार कर्म भी श्रम से श्रात्मप्रदेशों से बद्ध व स्पष्ट होते हुए निकाचित श्रवस्था को प्राप्त होते हैं । निकाय - १. देवगतिनामकर्मोदयस्य स्वधर्मविशेषापादितभेदस्य सामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकाया: संघाताः । ( स. सि. ४ - १ ) । २. स्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यात् निचीयन्ते इति निकायाः । देवगतिनामकर्मोदयस्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकायाः, संघाताः इत्यर्थः । (त. वा. ४, १, ३) । ३. स्वधर्मविशेषापादितसामर्थ्यान्निचीयन्त इति निकाया: । (त. इलो. ४-१ ) ।
१ अपने धर्मविशेष से प्राप्त अनेक भेदों वाले देवगति नामकर्म के उदय के प्रभाव से जो समुदाय को प्राप्त होते हैं वे निकाय कहलाते हैं । निकायकाय - नियतो नित्यः कायो निकायः, नित्यता चास्य त्रिष्वपि कालेषु भावात् । श्रधिको वा कायो निकायः, यथा अधिकदाहो निदाह इति । प्राधिक्यं चास्य धर्माधर्मास्तिकायापेक्षया स्वभेदापेक्षया वा । तथाहि — एकादयो यावदसंख्येया: पृथिवीकायिकास्तावत्कायस्त एव स्वजातीयाग्यप्रक्षेपापेक्षया निकाय इति, एवमन्येष्वपि विभाषा । इत्येवं जीबनिकायसामान्येन निकायकायो भण्यते । अथवा जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्नः षड्विधोऽपि निकायो भण्यते तत्समुदायः एवं च निकायकाय इति । ( भाव. नि. हरि. वृ. १४३६, पृ. ७६८ ) ।
नित्य काय अथवा अधिक काय का नाम निकाय है । पृथिवोकायादिगत यह अधिकता धर्म-अधर्म श्रस्तिकायों की अपेक्षा श्रथवा अपने भेदों की अपेक्षा समझना चाहिए। एक से लेकर असंख्येय पृथिवीकायिक तक काय कहलाते । वे ही अपनी जातिगत अन्य भेदों के प्रक्षेप की अपेक्षा निकाय कहलाते हैं । यही क्रम अन्य जलकायिकादिकों के विषय में जानना चाहिए। इस प्रकार से बने हुए छहों निकायों के समुदाय को निकायकाय कहा जाता है।
६०४, जैन - लक्षणावली
निकृति - १. निकृतिर्वञ्चना | मणि सुवर्ण रूप्याभासदानतो द्रव्यान्तरादानं निकृतिः । ( धव. पु. १२, पृ. २८५ ) । २. निक्रियतेऽनया परः परिभूयत इति निकृति: । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ८ - १० ) ।
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