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चेतना]
४४४, जैन-लक्षणावली
[चैत्यावर्णवाद
चैतन्य से युक्त होने का नाम चेतनत्व है।
सकलाभिमतपुरुषार्थसिद्धिहेतूतया उपासनीयानीति चेतना- १. xxx चेयण पच्चक्ख सन्नमणु- चैत्यमहत्ताप्रकाशनं चैत्यवर्णजननमिति । (भ. प्रा. सरणं । (दशवै. भा. १९)। २. चेतनं चेतना, सा विजयो. ४७) । २. अर्हदादीनां शान्तरूपत्व-वीतराप्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी । (दशव. हरि. व. ४-१६, गत्वादिगुणानुस्मरणात पूर्वपापनिरोधोऽभिनवपुण्यात्रप. १२५) । ३. अन्वितमहमहमिकया प्रतिनियता- वणं पूण्योदयस्फारीभावः पापोदयापकर्षश्च xx विभासिबोधेषु । प्रतिमासमानमखिलैर्य द्रूपं वेद्यते । (भ. प्रा. मूला. ४७) । सदा सा चित् ।। (अन. ध. २-३४) ।
१ वर्ण शब्द का अर्थ यहां प्रशंसा अभीष्ट है। तद१ प्रत्यक्षरूप से वर्तमान पदार्थ के ग्रहण का नाम नुसार जिस प्रकार साक्षात् परहन्त प्रादि भव्य चेतना है। ३ प्रतिनियत पदार्थों को प्रतिभासित जीवों के लिए शभोपयोग के कारणभूत हैं उसी करने वाले ज्ञानों में 'अहम् अहम्' रूप से-जिस प्रकार उनके प्रतिबिम्ब भी शभोपयोग के कारणमैंने पूर्व में घट को देखा था वही मैं अब पट को भूत हैं, क्योंकि बाह्य द्रव्य के प्राश्रय से जीवों के देख रहा हूं, इत्यादि स्वरूप से-जो प्राकार प्रति- शुभ व अशुभ परिणाम हुआ करते हैं। प्रकृत में भासित होता है उसे चित् या चेतना कहा जाता प्रतिबिम्ब अरहन्त आदि के गुणों के स्मरण का
कारण है। इस गणानस्मरण से नवीन पाप प्रकृचैतन्य-देसो चेतना । त्रिकालगोचरानन्तपर्याया- तियों के प्रास्रव के निरोधरूप संवर और पुण्य त्मकस्य जीवस्वरूपस्य स्वक्षयोपशमवशेन संवेदनं प्रकृतियों का आगमन होता है। साथ ही पूर्वबद्ध चैतन्यम् । (धव. पु. १, पृ. १४५)।
शुभ प्रकृतियों के अनुभाग में वृद्धि और अशुभ तीनों कालों को विषय करने वाली अनन्त पर्याय प्रकृतियों के अनुभाग में हानि भी हुमा करती है । स्वरूप जीव के स्वरूप का जो अपने क्षयोपशम के इससे जिनप्रतिबिम्बों की उपासना करना योग्य अनसार संवेदन होता है उसका नाम चैतन्य है। है। इस प्रकार जिनप्रतिबिम्बों के महत्त्व को प्रगट
चैत्य-चिते: लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यम्, करना, यह चैत्यवर्णजनन कहलाता है। तच्च संज्ञाशब्दत्वाद देवताप्रतिविम्बे प्रसिद्धम्, तत- चैत्यवक्ष (चइतरुक्ख)-१. तेषां (चत्य वृक्षपीस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचाराच्चत्य- ठानां) मध्ये सिद्धार्थनामकाः चैत्यवृक्षाः सिद्धार्थमुच्यते । (जम्बूद्वी. शा. १, पृ. १४; सूर्यप्र. मलय. तीर्थकरप्रतिकृतिपवित्रीकृता: षोडशयोजनोच्छाय-चवृ. पृ. २)।
तुर्योजनोत्सेघ-योजनविष्कम्भस्कन्धा: द्वादशयोजनोभित्ति आदि के चिनने रूप क्रिया से जो निर्मित च्छाय-तावबाहल्यविटपा: । (त. वा. ३, १०, होता है उसे चैत्य कहा जाता है, यह मुख्य रूप से १३, पृ. १७८)। २. चउपासट्टियजिणिद-यंददेवता के प्रतिबिम्बरूप अर्थ में प्रसिद्ध है, पर उप- पडिबिम्बसंबंधेण पत्तच्चणचइत्त रुक्खएहि xx चार से उस चैत्य के प्राश्रयभूत देवालय को भी x। (धव. पु. ६, पृ. ११०)। चैत्य कहा जाता है।
१ सिद्धार्थ (कृतकृत्य) तीर्थंकर की प्रतिमाओं से चैत्यवर्णजनन-१. यथा वीतराग-द्वेषास्त्रिलोक- पवित्र किये गये- उनसे अधिष्ठित-व नियमित चलामणयोऽहंदादयो भव्यानां शुभोपयोगकारणता- ऊंचाई आदि से सहित जो सिद्धार्थ नामक वृक्ष मूपयन्ति तद्व देतान्यपि तदीयानि प्रतिबिम्बानि । होते हैं वे चैत्यवृक्ष कहलाते हैं। बाह्यद्रव्यावलम्बनो हि शंभोऽशुभो वा परिणामो चैत्यावर्णवाद-१. स्वकल्पनाभिरयमहन्नेष सिद्धः जायते । यथा-यात्मनि मनोज्ञामनोज्ञविषयसान्नि- इत्यचेतनस्य व्यवस्थापनायामपि दारिकाणां कृत्रिमध्याद राग-द्वेषौ, स्वपुत्रसदृशदर्शनं पुत्रस्मृतेरालम्ब- पुत्रकव्यवहृतिरिब न मुख्यवस्तूपसे वनोद्भवं फलं नम. एवमहदादिगुणानुस्मरणनिबन्धनं प्रतिबिम्बम् । लभ्यते । न प्रतिबिम्बादिस्था अहंदादयः, तदगुणतथानुस्मरणम् अभिनवाशुभप्रकृतेः संवरणे, प्रत्यग्र- वैकल्यान्न प्रतिबिम्बानामहंदादित्वमिति चैत्यावर्णशुभकर्मादाने, गृहीतशुभप्रकृत्यनुभवस्फारीकरणे, वादः । (भ. प्रा. विजयो. १-४७) । २. सोऽय
ताशभप्रकृतिपटलरसापहासे च क्षममिति हन्नित्यादिस्वकल्पनया पाषाणादावचेतने तव्यव
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