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________________ चुरुलितदोष ४४३, जैन-लक्षणावलो [चेतनत्व चुरुलित दोष-एकस्मिन् प्रदेशे स्थित्वा कर मुकुलं दिफलानि (भिक्षार्थं चूर्ण प्रयुजानस्य चूर्णपिण्ड:)। संभ्राम्य सर्वेषां यो वन्दना करोत्यथवा पंचमादि- (योगशा. स्वो. विव. १-३८) । स्वरेण यो वन्दनां करोति, तस्य चुरुलितदोषो १ वशीकरण आदि के लिए द्रव्यचूर्ण के प्राश्रय से भवति । (मला. व. ७-१०)। भोज्य वस्तु को प्राप्त करना, यह चूर्णपिण्ड नाम एक स्थान में खड़े होकर और जुड़े हुए हाथों को का उत्पादन दोष है। घुमाकर सब साधुनों को एक साथ वन्दना करना चूरिणका-१. चूणिका मास-मुद्गादीनाम् : (स. अथवा पंचमादि स्वर के साथ वन्दना करना, यह सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, १४; कातिके. टी. कृतिकर्म का चुरुलित नाम का ३२वां दोष है। २०६) । २. अतिसूक्ष्माऽतिस्थूलवजितं मुद्ग भाषचूडा-देखो चूलिका । घुडा इव चूडा, इह दृष्टि राजमाष-हरिमंथकादीनां दलनं चूणिका । (त. वा. वादपरिकर्म-सूत्र-पूर्वगतानुयोगोक्तानुक्तार्थसंग्रहपरा टी. ५-२४)। ग्रन्थपद्धतयश्चूडा। (समवा. अभय. वृ. १४७, पृ. २ उड़द और मूंग प्रादि के दलने से जो अतिशय १२२)। सूक्ष्मता और अतिशय स्थलतासे रहित कण उत्पन्न दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत और अनुयोग में होते हैं उन्हें चूर्णिका कहा जाता है। उनसे सम्बद्ध जिन विषयों का निरूपण नहीं किया चूलिका-देखो चूडा। १. xxx एक्केण गया है उनका संग्रह करके निरूपण करने वाली दोहि सव्वे हि वा अणियोगद्दारेहि सूइदत्थाणं विसेसग्रन्थपद्धति को चूडा, चूला या चूलिका कहते हैं। परूवणा चूलिया णाम । (धव. पु. ७, पृ. ५७५); चूरग-१. चूर्णो यव-गोधमादीनां सक्तकणिकादिः । सुत्तसुइदत्थपयासणं चूलिया णाम । (धव. प्र. १०, पृ. ३९५); जाए प्रत्थपरूवणाए कदाए (स. सि. ५-२४; त. वा. ५, २४, १४, कातिके. टी. २०६) । २. पिटू-पिट्रियाकाणिकादि पुवपरूविदत्थभ्मि सिस्साणं णिच्छयो उप ज्जदि सा चूलिया त्ति भणिदं होदि। (धव. पृ. दव्वं चुण्णणकिरियाणिप्फण्णं चुण्णं णाम । (धव. ११, पृ. १४०)। २. चतुरशीतिश्चूलिकाङ्गशतपु. ६, पृ. २७३)। ३. यव-गोधूम-चणकादीनां सक्तु सहस्राणि एका चूलिका । (जीवाजी. मलय. व. ३. कणिकादिकरणं चूर्णम् । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) । २, १७८, पृ. ३४५)। १ गेहूं और जो आदि के सक्तु (सतुआ) रूप कणों १ पूर्वनिरूपित अनयोगद्वारों में एक, दो अथा प्रादि को चूर्ण कहते हैं। सभी अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थों की विशेष प्ररू. चूर्णदोष -१. णेत्तस्संजणचुण्णं भूमणचुण्णं च पणा जिस सन्दर्भ के द्वारा की जाती है उसका नाम गतसोभयरं । चुण्णं तेणुप्पादो चुण्णयदोसो हवदि चूलिका है। २ चौरासी लाख चूलि कांगों की एक एसो। (मूला. ६-४१)। २. पाठसिद्धादिमंत्राणा- चूलिका (गणनाभेद) होती है। मङ्गशृङ्गारकारिणः । चूर्णादेर्देशने स्यातां मंत्रचूर्णो चूलिकाङ्ग - चतुरशीतिर्नयुतशतसहस्राणि एक पजोवने । (प्राचा. सा. ८-४४)। ३. दोषो भोजन चूलिकाङ्गम् । (जीवाजी. मलय. व. ३, २, १७८, जननं भूषाजन चूर्ण योजनाच्चूर्णः। (अन. घ. ५, पृ. ३४५।। २७)। ४. चूर्णा देरुपदेशनं चूर्णोपजीवनम् । (भाव. चौरासी लाख नयुतों का एक चूलिकाङ्ग (गणनाप्रा. टी. ६९)। भेद) होता है। १नेत्रों के अंजन चूर्ण (कज्जल), प्राभूषणा के चेटिका-देव-शास्त्र-गुरून नत्वा बन्धुवत्मिसाक्षिचूर्ण (क्षारादि द्रव्य) और शरीर के चूर्ण (पाउडर कम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता ॥ पादि) के आश्रय से पाहार के उत्पादन करने को चर्णदोष कहते हैं। विवाहित पत्नी के अतिरिक्त रखी हुई अन्य स्त्री चूर्णपिण्ड-१. वशीकरणाद्यर्थं द्रव्यचूर्णादवाप्तश्चू- चेटिका कहलाती है। पिण्डः । (प्राचारा. शी. वृ. २, १, ३७३, पृ. चेतनत्व-चेतनत्वं चैतन्यवत्त्वम् । (ललितवि. ३२०) । २. चूर्णानि नयनाञ्जनादीनि अन्तर्धाना- म. पं.पू. २५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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