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चित्रान्तरगण्डिका]
४४२, जैन-लक्षणावलो
[चुडली
चित्रान्तरंगण्डिका-चित्राः अनेकार्था अन्तरे- ३ विशिष्ट क्षयोपशम के वश अपने धर्म से अन्वित ऋषभाजित तीर्थकरान्तरे-गण्डिका एकवक्तव्यताधि- सद्भत अर्थविशेष का जो बार बार चिन्तन होता है, कारानुगताः । एतदुक्तं भवति-ऋषभाजिततीर्थक- उसफा नाम चिन्ता है। ४ वर्तमान अर्थ को विषय रान्तरे तद्वंशजभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिव- करने वाले मतिज्ञान से विशषित जीव को चिन्ता गतिगमनानुत्तरोपपातप्राप्तिप्रतिपादिकाश्चित्रान्तरग- कहा जाता है, जो मनःपर्ययज्ञान का विषय है। ण्डिका इति । (नन्दी. हरि. व. पृ. १०६) ।
५ अग्नि के बिना कहीं व कभी भी धम नहीं होता ऋषभ और अजित तीर्थंकरों के अन्तराल में उनके तथा प्रात्मा के बिना शरीर में व्यापार व वचन वंश में उत्पन्न हुए राजाओं की शेष गतियों सम्बन्धी आदि नहीं होते, इत्यादि विचार का नाम चिन्ता गमन को छोड़कर मोक्षगति एवं अनुत्तर विमानों है । इसे ऊहा भी कहा जाता है। में उपपात (जन्म) की प्राप्ति का जहां प्रतिपादन चिन्ताज्ञान-चिन्ताज्ञानमागामिनो वस्तुन एवं किया जाता है वे चित्रान्तरगण्डिका कहलाती हैं। निष्पत्तिर्भवति अन्यथा नेति, यथैवं ज्ञानादित्रय. चिदात्मा-प्रस्ति पुरुष श्चिदात्मा विवजितः स्पर्श- समन्विते तत्रैव परमसुग्वावाप्तिरन्यथा नेत्येतच्चिगन्ध-रस-वणः । गण-पर्ययसमवेतः समाहितः समदय- ताजानं मनोज्ञानमेव । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१३)। पय-ध्रौव्यैः ॥ (पु सि. ६)।
प्रागामी वस्तु की निष्पत्ति (सिद्धि) इस प्रकार से रूप, रस, गन्ध व स्पर्श से रहित; गण-पर्यायों से होती है. अन्य प्रकार से नहीं; इस प्रकार के ज्ञान समवेत-उनसे तादात्म्य रखने वाला-तथा उत्पाद,
को चिन्ताज्ञान कहा जाता है। जैसे-ज्ञानादि व्यय एवं ध्रौव्य से सहित प्रात्मा को चिदात्मा तीन (रत्नत्रय) से युक्त होने पर ही परम (पुरुष) कहते हैं।
सुख की प्राप्ति होती है, अन्य प्रकार से नहीं होती। चिन्ता-१. चिन्तनं चिन्ता ।(स. सि. १-१३: त. चिह्नलोक-जं दिळं संठाणं दवाण गुणाण वा. १, १३, ५)। २. चिन्ता अन्तःकरणवत्तिः। पज्जयाणं च । चिणलोगं वियाणाहि अणंतजिणअन्तःकरणस्य वृत्तिरर्थेषु चिन्तेत्युच्यते । (त. वा. देसिदं । (मूला. ७-५०)। ६, २७, ४) । ३. ततो मुहर्महः क्षयोपशमविशेषतः द्रव्य, गुण और पर्यायों के संस्थान या प्रकार को स्वधर्मानुगतसद्भूतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता। (नन्दी. चिह्नलोक कहते हैं । यह नाम-स्थापनादि नौ लोकहरि. व. पृ. ६५); तथा चिन्ता अन्वयधर्मपरिज्ञा
1. वासना भेदों में से एक है। नाभिमुखा चेष्टा । यथा मधुरत्वादयस्त्वेवभूता चीनांशुकपट्ट-चीणविसयुप्पण्णो चीणांशुयपट्टो। इति । (नन्दी. हरि. व. पृ. ७८) । ४. वट्टमाण- (अनुयो. चू. पृ. १५) । स्थविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो चिता णाम। चीन देश में उत्पन्न वस्त्र को चीनांशुकपट कहा (धव. पु. १३, पृ. ३३३)। ५. अग्निना विना
जाता है। क्वचित् कदाचिद घमो न भवत्यात्मना विना शरीरे चूडली-देखो चुरुलित दोष । चुडली उल्मूकम्, व्यापार-वचनादिकं न भवतीत्यादितर्कणमहश्चिन्ता। यथोल्मुकं गृह्यते तथा रजोहरणं गृहीत्वा वन्दनम, (अन. ध. स्वो. टी. ३.४), ६. चिन्तनं चिन्ता-देशा- यद्वा यत्र दीर्घहस्तं प्रसार्य वन्दे इति भणतो वन्दनम्, न्तरे कालान्तरे च यावान् कश्चिद्धमः स सर्वोऽप्यग्नि- अथवा हस्तं भ्रामयित्वा सर्वान वन्दे इति वदतो जन्मा, अनग्निजन्मा वा न भवतीति व्याप्ति ग्रहण- वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। मूहाख्यं सम्यग्ज्ञानं कथ्यते । (त. सुखबो. १-१३)। चुडली का अर्थ उल्मुक या अलात होता है। जिस ७. यथा अग्नि विना घमो न स्यात्, तथा प्रात्मानं प्रकार उल्मक को ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार विना शरीरव्यापार-वचनादिकं न स्यादिति वित- रजोहरण को ग्रहण कर वन्दना करना, यह चुडली र्कणमूहनं चिन्ता अभिधीयते । (त. वृत्ति श्रुत. दोष होता है । अथवा लम्बा हाथ फैलाकर 'वग्दे'
कहते हुए वन्दना करना या हाथ को घुमाकर २ पदार्थों के विषय में जो अन्तःकरण की प्रवत्ति 'सर्वान वन्दे' ऐसा कहते हुए वन्दना करना, इसे -मन से चिन्तन-होता है उसे चिन्ता कहते हैं। वन्दना का चुडली दोष समझना चाहिये।
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