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चिकित्सादोष] ४४१, जैन-लक्षणावली
[चित्रकर्म चालणीसमानः । (प्राव. मलय. वृ. १३६, पृ. तानागतवर्तमानग्राहि ।(दशवं. भा. हरि. व. ४.१६, १४३)।
पृ. १२५) । ३. प्रात्मनः परिणामविशेषश्चित्तम् । जिस प्रकार चलनी (पाटा छानने का उपकरण) में प्रात्मनश्चैतन्यपरिणामविशेषश्चित्तम् । (त. वा. २, जल के डालने पर वह उसी क्षण निकल जाता है, ३२, १)। ४. यत्पुन रनवस्थितं तच्चित्तम् । (ध्यानथोड़े समय भी उसमें स्थित नहीं रहता, इसी श.-प्राव. हरि. व. अ. ४, पृ. ५८३)। प्रकार जिस शिष्य के लिए दिया गया सूत्रार्थ कानों १ जो भूत, भविष्यत् और वर्तमान तीनों कालों में प्रविष्ट होने के साथ ही विस्मृत हो जाता है वह को सामान्य से विषय करता है वह चित्त कहलाता शिष्य चलनी के समान माना गया है।
है। ३ प्रात्मा के चैतन्य परिणामविशेष को चित्त चिकित्सादोष-१. कोमार-तणुति गिछा- रसायण- कहते हैं। विस-भूद-खारतंतं च । सालंकियं च सल्लं तिगि
चित्तप्रसाद परिणाम-१. तस्यैव (मोहस्यैव) छदोसो दु अट्टविहो । (मूला. ६-३३) । २. अष्ट.
मन्दोदये विशुद्धपरिणामता चित्तप्रसादपरिणामः । विधया चिकित्सया लब्धा [वसति:] चिकित्सो.
(पंचा. का. अमत. व. १३१) । २. तस्यैव मोहस्य त्पादिता। (भ. प्रा. विजयो. २३०)। ३. वैद्य
मन्दोदये सति चित्तस्य विशुद्धिश्चित्तप्रसादो भण्यते । कर्मणा दुष्टा चिकित्सादृष्टा । (भ. प्रा. मूला.
(पंचा. जय. वृ. १३१)। २३०)। ४. चिकित्सा रुक्प्रतीकारात् Xxx।
१ मोहकर्म का मन्द उदय होने पर जो परिणामों Xxx अश्नतः ॥ (अन.ध. ५-२५)।
की विशद्धि होती है उसे चित्तप्रसाद परिणाम १ कौमारचिकित्सा, तनुचिकित्सा, रसायन, विष, ।
कहते हैं। भूत, क्षारतंत्र, शालाकिक या शालाक्य और शल्य
चित्तविप्लव-चित्तविप्लवः प्रशमसौख्यविपर्यासः । इस पाठ प्रकार की चिकित्सा के द्वारा आहार के प्राप्त करने पर चिकित्सा नाम का उत्पादन दोष
(योगशा. स्वो. विव. १२४)। होता है। २ पाठ प्रकार की चिकित्सा द्वारा वस
धनादि के न होने पर भी मर्जी के कारण जो तिका के प्राप्त करने पर वसतिका सम्बन्धी चिकि- प्रशमसुख का अभाव-मानसिक क्लेश-होता है त्सा नाम का उत्पादन दोष होता है।
उसका नाम चित्तविप्लब है। चिकित्सापिण्ड- १. सूक्ष्मेतरचिकित्सयाऽवाप्त- चित्रकर्म-पड-कुड्ड-फलहियादीसु णच्चणादिकिरिश्चिकित्सापिण्डः । (प्राचारा. शी. व. २, १, २७३, यावावददेव-णे रइय-तिरिक्ख-मणुस्साणं पडिमाओ पृ. ३२०)। २. वमन-विरेचन-वस्तिकर्मादि कारयतो चित्तकम्म, चित्रेण क्रियन्त इति व्युत्पत्तेः। (धव. वैद्यभैषज्यादि सूचयतो वा पिण्डाथं चिकित्सापिण्डः। पु. ६, पृ. २४९); एदामो चेब चउविहायो (योगशा. स्वो. विव. १-३८, पृ. १३५)। (दुवय-चउप्पय-अपाद-पादसंकुलाओ) पडिमानो १ सूक्ष्म अथवा स्थूल चिकित्सा-रोग के उपचार कुड्डु-पड-त्थंभादिसु रायवट्टादिवण्णविसे सेहिं चित्ति. -द्वारा प्राप्त किया गया प्राहार चिकित्सापिण्ड यायो चित्तकम्माणि णाम । (धव. पु. १३, पृ. नामक दोष से दूषित होता है।
६); कुडु-कट सिला-थंभादिसू विविहवण्णविसेसेहि चिकूराग्र—देखो बालाग्र । अष्टभिः रथ रेणुभिः लिहिदपडिमाग्रो चित्तकम्माणि णाम । (धव. पु. पिण्डिताभिरेकं चिकुराग्रमुच्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १३, पृ. २०२); चित्तारेहितो वण्णविसे सेहि णिप्फ
ण्णाणि चित्तकम्माणि णाम । (धव. पु. १४, पृ. पाठ रथरेणगों के समुदाय को एक चिकुरान ५)। (बालाग्र) कहते हैं।
नर्तन प्रादि क्रिया में प्रवृत्त हुए देव, नारकी, चित्-देखो चेतना।
तिर्यञ्च और मनुष्यों की प्रतिमानों को जो वस्त्र चित्त-१. चित्तं तिकालविसयं । (दशवं. भा. १६, भित्ति और पटिया आदि के ऊपर अङ्कित किया पृ. १२५) । २. चित्तं त्रिकालविषयम् -प्रोघतोऽती- जाता है, यह चित्रकर्म कहलाता है।
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