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चोरप्रयोग ]
स्थायामपि कन्यकानां कृत्रिमपुत्रकव्यवहृताविव न मुख्य वस्तू सेवनोद्भवं फलमुपलभ्यते इति न प्रतिमादिषु संक्रान्ता ग्रहंदादयो नापि प्रतिमादोनामर्हदादित्वमस्ति तद्गुणशून्यत्वात्ततोऽन्यपाषाणादिवन्न तेषा - माराधने किञ्चित्फलमस्ति, इत्यादिश्चैत्यानाम् ( अवर्णवादः) । (भ. श्री. मूला. ४७) ।
४४५, जैन-लक्षणावली
१ अपनी कल्पना से 'यह श्ररहन्त या सिद्ध हैं' इस प्रकार अचेतन पाषाण उनकी स्थापना करने पर प्रत्यक्ष में उनकी प्राराधना से कुछ फल प्राप्त होता है यह सम्भव है । जैसे – कन्यायें कृत्रिम पुत्र ( प्रतिकृतिरूप ) में जब पुत्र का व्यवहार करती हैं तब यथार्थ पुत्र का फल उन्हें कभी प्राप्त नहीं होता, वैसे ही श्ररहंत आदि की प्रतिमानों की पूजा आदि से वह फल नहीं प्राप्त हो सकता । कारण यह कि न तो प्रतिमानों में अरहन्त प्रादि स्थित होते हैं और न उनके गुणों से शून्य होने के कारण वे प्रतिमायें स्वयं अरहन्त प्रादि हो सकती हैं। इस प्रकार से कुयुक्तिपूर्वक प्रतिमानों की निन्दा करने को चैत्यावर्णवाद कहा जाता है । चोरप्रयोग - देखो चौरप्रयोग |
चौरकथा - १. स चौरो निपुणः खातकुशलः, स च वर्त्मनि ग्रहणसमर्थः पश्यतां गृहीत्वा गच्छति तेन सर्व प्राक्रान्ता इत्येवमादिकथनं चौरकथा । (मूला. वृ. ६-८६ ) । २. चौराणां चौरप्रयोगकथनं चौरकथाविधानम् । (नि. सा. वृ. ६७) ।
१ वह चोर सेंध लगाने में बड़ा निपुण है, मार्ग में चलते हुए लोगों को देखते-देखते लूट कर चला जाता है, वह सभी पर आक्रमण करने वाला है; इत्यादि प्रकार से चोरों की चर्चा करने को चौरकथा कहते हैं ।
चौरप्रयोग - १. चोरप्रयोगः चोरयतः स्वयमेवान्येन वा प्रेरणं प्रेरितस्य वाऽन्येनानुमोदनम् । (रत्नक. टी. ३ - १२) | २. चोरप्रयोगः - चोरयतः स्वयमन्येन वा चोरय त्वमिति चोरणक्रियायां प्रेरणम्, प्रेरितस्य वा साधु करोषीत्यनुमननम् । कुशिका - कर्तरिकाघर्घरिकादिचौरोपकरणानां वा समर्पणं विक्रयणं वा । (सा. ध. स्व. टी. ४ - ५० ) ।
१ चोरी करने वाले को चोरी के लिए स्वयं प्रेरित करना, अन्य से प्रेरणा करना या उसकी अनुमोदना
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[ च्यवन
करना, इसे चौरप्रयोग कहते हैं । यह अचौर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । चौरार्थादान - १. चौरार्थादानं च प्रप्रेरितेनाननुमतेन च चोरेणानीतस्यार्थस्य ग्रहणम् । ( रत्नक. टी. ३-१२ ) । २. चौराहृतग्रहः -- प्रेरितेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य कनक वस्त्रादेरादानं मूल्येन मुद्रिका वा । (सा. ध. स्वो. टी. ४-५० ) । १ जिसे चोरी के लिए प्रेरणा व अनुमोदना नहीं की गई है, ऐसे चोर के द्वारा लाये हुए अर्थ ( सुवर्णादि) के लेने को चौरार्थादान कहते हैं । यह अचौर्याणुव्रत का एक प्रतिचार है । चौराहृतग्रह - देखो चौरार्थादान |
चौर्य - १. प्रदत्तस्य स्वयं ग्राहो वस्तुनः चौर्य मीर्यंते । संक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तियंत्र तत्र तत् । (ह. पु, ५८, १३१) । २. स्तैन्यं परद्रव्यापहरणाभिप्रायः । ( मूला. वृ. ५- १६६ ) । ३. प्रदत्तस्य यदादानं चौर्यमित्युच्यते बुधैः । (लाटीसं. ६-३३ ) ।
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१ संक्लेश परिणामपूर्वक बिना दी हुई वस्तु के ग्रहण करने को चौर्य या चोरी कहते हैं । चौर्यानन्द - १. तह तिव्वकोह- लोहाउलस्स भूग्रोव - घायणमणज्जं । परदव्वहरणचित्तं परलोयावायनिरवेवखं ।। (ध्यानश. २१) । २. चौर्योपदेशबाहुल्यं चातुर्यं चौर्यकर्मणि । यच्चौर्येकपरं चेतस्तच्चोर्यानन्द इष्यते ॥ यच्चौर्याय शरीरिणामहर हरिचन्ता समुत्पद्यते, कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुलं कुर्वन्ति यत्सन्ततम् । चौर्येणापि हृते परैः परधने यज्जायते संभ्रमस्तच्चौर्य प्रभवं वदन्ति निपुणा रौद्रं सुनिन्दास्पदम् || (ज्ञाना. २५-२६, पृ. २६६-६७ ) । ३. परद्रव्यहरणे तत्परता प्रथमं रौद्रम् । (मूला. वृ. ५-१६६ । १ तीव्र क्रोध व लोभ से अभिभूत प्राणी का चित्त जो दूसरे के द्रव्य के अपहरण में संलग्न रहता है, यह चौर्यानन्द या स्तेयानुबन्धी रौद्र ध्यान कहलाता है । २ चोरी करने का उपदेश देना, चोरी करने में चातुर्य रखना, चित्त को सदा चोरी में लगाये रखना, निरन्तर चोरो का चिन्तन करना, चोरी करके हर्षित होना; इत्यादि प्रवृत्ति को चौर्यानन्द नाम का रौद्रध्यान कहा जाता है ।
च्यवन - १. च्युतिः च्यवनम्, वैमानिक ज्योतिष्काणां मरणम् । ( स्थाना. अभय वू. १-२७, पृ. १९) ।
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