________________
जैन-लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्द-कोष)
कक्वकुशोल-विद्या-योगादिभिः परद्रव्यापहरण- मुख करके देखता है और कभी पीछे को मुख करके दम्भप्रदर्शनपरः कक्वकुशीलः। (भ. प्रा. विजयो. देखता है, उसी प्रकार ऊर्ध्वस्थित (खड़े) होकर १९५०)।
'तित्तिसणयरा' इत्यादि सूत्र का उच्चारण करते विद्या व मंत्रादि के प्रयोग द्वारा दूसरों के द्रव्य के हए अथवा बैठने पर 'अहो कायं काय' इत्यादि सूत्र अपहरणविषयक दम्भ को दिखाने वाले साधु को का उच्चारण करते हए, कभी प्रागे की ओर, और कक्वकुशील कहते हैं ।
कभी पीछे की ओर चलते हुए वन्दना करना; कच्छपरिगित दोष-१. कच्छरिगियं कच्छपरिगि- इसे कच्छपरिंगित कहते हैं । यह वन्दना का तं चेष्टितं कटिभागेन कृत्वा यो विदधाति बन्दनां तस्य सातवां दोष है। कच्छपरिगितदोषः । (मूला. वृ. ७-१०६)। २. ठिउ- कटक-बंसकंबीहि अण्णोण्णजणणाए जे किज्जति विरिंगणं जंतं कच्छवरिंगियं जाण । (प्रव, सारो. घरावणादिवाराणं ढंकणट्र ते कडया णाम । (धव. १५८)। ३. कच्छपरिङ्गितमूर्ध्वस्थितस्य 'तित्ति- पु. १४, पृ. ४०)। सणयरा' इत्यादिसूत्रमुच्चारयत उपविष्टस्य वा अहो बांस की कमचियों को परस्पर जोड़कर जो घर 'कायं काय' इत्यादिसूत्रमुच्चारयतोऽग्रतोऽभिमुखं आदि के द्वारों को ढांकने के लिए टटिया (जाली पश्चादभिमुखं च रिङ्गतश्चलतो वन्दनम् । (योग- जैसी) बनायी जाती है उन्हें कटक कहते हैं। शा. स्वो. विव. ३-१३०)। ४. निषेदषः कच्छप- कटकरण-कटकरणं कटनिवर्तकं चित्राकारमयोवद्रिखा कच्छपरिङ्गितम् । (अन. ध. ८-१००)। मयं पाइल्लगादि। (उत्तरा. नि. शा. वृ. १८४, ५. कच्छपस्येव जलचरजीवविशेषस्येव, रिङ्गणम् पृ. १६५) । अग्रतोऽभिमुखं पश्चादभिमुखं च यकिञ्चिच्चलनं चटाई बनाने के काम में आने वाले चित्राकार लोहे तच्च यत्र करोति शिष्यः तत्कच्छपरिङ्गितं जानीहि। के पाइल्लग (उपकरणविशेष) आदि कटकरण कह(प्रव. सारो. वृ. १५८)। ६. स्थितस्योर्ध्वस्थानेन लाता है। 'तेत्तीसन्नयराए' इत्या दिसूत्रमुच्चारयतः, उपविष्टस्य कटु-१. वैशद्यच्छेदनकृत्कटुः । (अनुयो. हरि. वृ. वा ऽऽसीनस्य 'अहोकायं काय' इत्यादि सूत्रं भणत: पृ. ६०)। २. श्लेष्मभेदपाटवकृत् कटुः । (त. भा. कच्छपस्येव जलचरजीवविशेषस्य रिङ्गनम्-अग्रतो- सिद्ध. ७.५-२३) । ऽभिमुखं प्रागभिमुखं च यत्किञ्चिच्चलनं तद्यत्र २ जो रस कफ-नाशक होकर पटुता (नपुण्य) को करोति शिष्यः तदिदं कच्छपरिङ्गितं नामेति । (श्राव. भी करता है, वह कट रस माना जाता है। हरि. वृ. मल. हे. टि. पृ. ८८)।
कटक नामकर्म- जस्स कम्मरस उदएण सरीर१ कछए के समान रेंग करके कटिभाग से प्राचार्य पोग्गला कड़वरसेण परिणमंति तं कडवणाम । की वन्दना करने को कच्छपरिङ्गित दोष कहते हैं। (धव. पु. ६, पृ. ७५) । ३ जैसे कमा रेंगते (चलते) हए कभी पागे को जिस कर्म के उदय से शरीरगत पुद्गल कड़वे रस
ल. ४०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org