SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कठिन] ३१४, जैन-लक्षणावली [कनङ्गरा रूप से परिणत होते हैं उसे कटुक नामकर्म कहते हैं। मेव हि सप्रभेदं क्षेत्रं च तीर्थमथ कालविभाग-भावौ। कठिन-अनमनात्मकः कठिनः। (अनु. हरि. व. अङ्गानि सप्त कथयन्ति कथाप्रबन्धे तैः संयुता भवति पृ. ६०; त. भा. सिद्ध. वृ.५-२३)। युक्तिमती कथा सा ॥ (वरांग. १-६)। ३. पुरुनहीं नमने वाली वस्तु के स्पर्श को कठिन स्पर्श षार्थोपयोगित्वात् त्रिवर्गकथनं कथा। (म. पु. १, कहते हैं। ११८)। ४. तन्नामोच्चारण-तद्गुणोत्कीर्तन-तच्चकण्ठहीन कुट-यस्य पुनरोष्ठपरिमण्डलाभावः स रितवर्णनादिका वचनपद्धतिः कथा। (ध. २ अधि. कण्ठहीनकुटः। (प्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. -अभि. रा. भा. ३, पृ. ४०२) । १४३)। १ तप व संयम गुणों के धारक साधु जो समस्त पोठों के घेरे से रहित घड़े को कण्ठहीन कुट कहते लोक के प्राणियों के लिए हितकर चरित्र का निरूपण करते हैं उसे कथा कहते हैं । कण्ठहीन कुट समान–यस्तु किञ्चिदूनं सूत्रार्थ- कदर्य-१. यो भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति स मवधारयति, पश्चादपि च तथैव स्मृतिपथमवतार- कदर्यः । (नीतिवा. २-६)। २. यो भृत्यात्मपीडायति स कण्ठहीनकुटसमानः । (प्राव. नि. मलय. वृ. भ्यामर्थं संचिनोति, न तु क्वचिदपि व्ययते, स १३६, पृ. १४३)। कदर्यः । (योगशा. स्वो. विव. १-५२, पृ. १५५)। जैसे गला रहित घड़ा अल्प जल को अपने भीतर १ जो सेवकों (नौकरों) के लिये और स्वयं अपने रखता है, उसी प्रकार जो शिष्य गुरु के द्वारा बत- लिए भी पीड़ा पहुंचाकर धन का संग्रह किया करता लाये हुए सूत्रार्थ को कुछ कम अवधारण करता है है उसे कदर्य कहा जाता है। और तदनसार अल्प ही स्मरण करता है, उसे कण्ठ- कदलीघात-१.विस-वेयण-रत्तक्खय-भय-सत्थग्गहहीन कुट समान कहते हैं। ण-संकिलेसेहिं । आहारोस्सासाणं णिरोहदो छिज्जदे कण्डक--देखो काण्डक । प्रथमस्थानात् द्वितीयं आऊ॥ (धव. पु. १, पृ. २३ उद्.; गो. क. ५७)। स्थानं स्पर्द्धकापेक्षया अनन्तभागवृद्धम्, यावन्ति ___ कदली (केले के स्तंभ) के समान जो विष, वेदना, प्रथमे स्थाने स्पर्द्ध कानि तावदभ्योऽनन्तभागाधिकानि रक्त-क्षय, भय, शस्त्राघात, संक्लेश पाहार और द्वितीये स्थाने स्पर्द्धकानि भवन्तीत्यर्थः । ततोऽपि श्वास के निरोध आदि के द्वारा सहसा प्राय का तृतीयं स्थानमनन्तभागवृद्धम् । एवमुपदर्शितेन प्रका- घात होता है उसे कदलीघात कहते हैं। रेण यथोत्तरमनन्तभागवृद्धानि स्थानानि तावद् कनक-माणुस-पसु-पक्खिमारणीयो तरु-गिरिसिहरवाच्यानि यावदगुलासंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमा- वियारणीयो असणीयो कणया जाम। (धव. पु. १४, णानि भवन्ति, तेषां च समुदाय एक कण्डकम् । पृ. ३५)।। (पञ्चसं. मलय. वृ. अनु. प्र. ४६, पृ. ४३)। जिनके द्वारा मनुष्य, पशु और पक्षी मर जाते हैं स्पर्धकों की अपेक्षा प्रथम स्थान से द्वितीय स्थान तथा वृक्ष और पर्वतशिखर विदीर्ण हो जाते हैं, अनन्तवें भाग से अधिक होता है, अर्थात् प्रथम ऐसे प्रशनियों (वज्रों) को कनक कहा जाता है। स्थान में जितने स्पर्धक हों उनके अनन्तवें भाग से कनङ्गरा–काय पानीयाय, नङ्गराः बोधिस्थनिअधिक वे द्वितीय स्थान में होते हैं । तृतीय स्थान श्चलीकरणपाषाणास्ते कनङ्गराः कानङ्गरा वाउससे भी अनन्तवें भागसे अधिक होता है। इस प्रकार ईषन्नंगरा इत्यर्थः । (विपाक. अभय. व. पु. ४५)। उक्त क्रम से अंगल के असंख्यातवें भागगत प्रदेश- क शब्द का अर्थ जल है और नगर का अर्थ है राशि प्रमाण तक वे स्थान उत्तरोत्तर अनन्तवें भाग नाव को स्थिर करने वाले पत्थर । अभिप्राय यह से अधिक होते जाते हैं। इन सबके समुदाय का है कि नौका यदि डगमगाती है तो उसे स्थिर करने नाम एक कण्डक (काण्डक) होता है। के लिए जो उसमें कुछ पत्थर डाल दिये जाते हैं वे कथा-१. तव-संजमगुणधारी जं चरणं कहिंति कनङ्गर कहलाते हैं, अथवा पानी में उसे रोकने के सब्भावं। सव्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया लिए जिस पत्थर से रस्सी या सांकल को बांध दिया समए ॥ (दशवै. नि. २१०)। २. द्रव्यं फलं प्रकृत- जाता है उसे कनङ्गर समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy