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ज्येष्ठत्व] ४७८, जैन-लक्षणावली
[झषावत ज्येष्ठत्व-ज्येष्ठत्वं माता-पितृ-ग्रहस्थोपाध्याया- ज्योतिष विमान की किरणों के सम्बन्ध से जो यिकादिभ्यो महत्त्वमनुष्ठानेन वा श्रेष्ठत्वम् । (भ. पृथिवी के समान प्रकाश में पावों से चल-फिर प्रा. मला. ४२१, पृ. ६१८)।
सकते हैं वे ज्योतिरश्मिचारण कहलाते हैं। माता, पिता, गृहस्थ, उपाध्याय, प्रायिका प्रादि की ज्वलनमुद्रा-हस्ताम्यां सम्पुटं विधायागुलीः अपेक्षा महत्त्व की प्राप्ति अथवा अनुष्ठान के द्वारा पद्मवद्विकास्य मध्यमे परस्परं संयोज्य तन्मूललग्नांङ्प्राप्त श्रेष्ठता का नाम ज्येष्ठत्व है। यह दस प्रकार गुष्ठो कारयेदिति बलन मुद्रा। (निर्वाणक. १६, के श्रमणकल्प में सातवां है।
६, १५)। ज्योतिश्चारण-अध-उडढ-तिरियपसरे किरणे दोनों हाथों को मिलाकर, अंगलियों को कमल के अवलंबिदूण जोदीणं । जं गच्छेदि तवस्सी सा समान विकसित कर और दोनों मध्यमा अंगलियों रिद्धी जोदिचारणा णाम ॥ (ति. प. ४-१०४६) । को परस्पर में जोड़कर उनके मूल भाग में अंगूठों जिसके प्रभाव से साधु नीचे, ऊपर और तिरछी के लगाने को ज्वलनमुद्रा कहते हैं । फैलने वाली सूर्य-चन्द्रमादि ज्योतिषियों की किरणों झल्लरी-झल्लरी चविनद्धविस्तीर्णवलयाकारा का अवलम्बन ले करके प्राकाश में गमन किया जा पातोद्यविशेषरूपा देशविशेषप्रसिद्धा । (प्रज्ञाप. सकता है उसे ज्योतिश्चारण ऋद्धि कहते हैं। मलय. वृ. ३३-३१६, पृ. ५४२)। ज्योतिष्क--१. द्योतयन्त इति ज्योतींषि विमा- किसी विशेष देश में प्रसिद्ध चमड़े से मढ़े हुए गोल नानि, तेष भवा ज्योतिष्काः, ज्योतिषो वा देवाः, प्राकार वाले बाजे को झल्लरी कहते हैं। ज्योतिरेव वा ज्योतिष्काः। मुकुटेषु शिरोमुकुटोप- झल्लरोसंस्थान-मज्झम्हि सयभुरमणोदहिपरिगहिभिः प्रभामण्डलकल्पैरुज्ज्वल: सूर्य-चन्द्र-तारा- क्खित्तदेसेण चंदमण्डलमिव समतदो असंखेज्जजोमण्डलैर्यथास्वं चिह्न विराजमाना यतिमन्तो ज्योति- यणरुदेण जोयणलक्खबाहल्लेण झल्लरीसमाणत्तादो
का भवन्तीति । (त. भा. ४-१३) । २. द्योतन. [झल्लरीस ठाणो मज्झिमलोग्रो]। (धव. पु. ४, प. स्वभावत्वाज्ज्योतिष्काः । (त. वा. ४, १२, १)। २१) । ३. द्योतयन्ति प्रकाशयन्ति जगदिति ज्योतींषि स्वयंभूरमण समुद्र से वेष्टित चन्द्रमण्डल के समान विमानानि , तेषु भवा ज्योतिष्काः, यदि वा द्योत- गोल, असंख्यात योजन विस्तृत तथा एक लाख यन्ति शिरोमुकुटोपगृहिभिः प्रभामण्डलकल्पः सूर्या
योजन वाहल्यवाले (ऊंचे) क्षेत्र को झालर के दिमण्डल : प्रकाशयन्तीति ज्योतिषो देवा सूर्यादयः। प्राकार होने से झल्लरीसंस्थान (मध्यलोक) कहा (प्रज्ञाप. मलय. वृ. १-३८, पृ. ७०)। ४. तथा
जाता है। द्योतनं ज्योतिः, प्रोणादिको शब्दव्युत्पत्तिः, ज्योति- झषावतं-१. उट्टित-निवेसिंतो उव्वत्तइ मच्छउव रेषामस्तीति ज्योतिष्का: 'ब्रीह्यादिभ्य' इति मत्वर्थीय जलमज्झे। वंदिउकामो वान्नं झषो व परियत्ता इक्प्रत्ययः, तत प्रादेरिकारलोपः। (बृहत्सं. मलय. तुरियं ।। (प्रव. सारो. १५६)। २. उत्तिष्ठन् निवि. व. २)। ५. ज्योतिःस्वभावत्वाज्ज्योतिष्का: । (त. शमानो वा जलमध्ये मत्स्व इब उद्धर्तत-उल्लात वत्ति श्रुत. ४-१२) ।
यत्र तन्मत्स्योवृत्तम्, अथवा एकमाचार्या दक वन्दिलोक को प्रकाशित करने वाले विमानों में उत्पन्न त्वा तत्समीप एवापरं वन्दनाह कंचन वन्दितुमिच्छंहोने वाले देवों को ज्योतिष्क या ज्योतिषी देव स्तत्समीपं जिगमिषुरुपविष्ट एव झष इव मत्स्य इव कहते हैं। अथवा विमानगत ज्योति (प्रभा) से त्वरितमङ्गं परावृत्य यद्गच्छति तन्मत्स्योदवत्तम सम्बन्ध रखने वाले देव ज्योतिष्क कहलाते हैं। इत्थं च यदङ्गपरावर्तनं तज्झषावर्तमित्यभिधीयते । ज्योतीरश्मिचारण-देखो ज्योतिश्चारण । चन्द्रा- (प्रव. सारो. व. १५६, पु. ३७)। क-ग्रह-नक्षत्राद्यन्यतमज्योतीरश्मिसम्बन्धेन भुवीव २ जिस प्रकार जल में मछली घूमती है उसी पादविद्यारकशलाः ज्योतीरश्मिचारणाः। (योगशा. प्रकार वन्दना करते समय जzi a
प्रकार वन्दना करते समय जहां उठते हए या बैठते स्वो. विब. १-६; प्रव. सारो. वु. ६०१)। हए घूमकर वन्दना की जाती है, अथवा एक चन्द, सर्य, ग्रह, और नक्षत्र इनमें से किसी एक प्राचार्य प्रादि की वन्दना करके उनके समीपवर्ती
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