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झुषिर (शुषिर)] ४७६, जैन-लक्षणावली
[तत किसी दूसरे प्राचार्य की वन्दना करने के लिए (निर्वाणक. १६, ९, १४, पृ. ३३)। बैठे-बैठे ही शीघ्रता से घूम कर जो जाना है, इसे दाहिने हाथ की मट्टी बांध कर कनिष्ठा और मत्स्योवृत्त कहते हैं, इस प्रकार से जो शरीर का अंगुष्ठ को पसार कर डमरू के समान चलाने को परावर्तन किया जाता है, यह एक झपावर्त नामक डमरुकमुद्रा कहते हैं। कृतिकर्म का दोष है।
डायस्थिति-१. जत्थ ठितिठाणट्रितो तीए चेव झुषिर (शुषिर)-तत्र शाल्यादिपलालतणमयो पगतीए उक्कोसितं ठिति बंधति सा डायट्ठिति झुषिरः। (व्यव. मलय. वृ. ८-८, पृ. ३)। वुच्चति । (कर्म. च. उद्व. क. ६, पृ. १४६) । धान्य प्रादि के पलाल (पुग्राल) तणरूप संस्तर को २. उक्कोस रायठिई xxx। (पंचसं. उद. झुषिर कहते हैं।
क. १५)। ३. यतः स्थितिस्थानादपवर्तनाकरणझोष-यस्मिन् प्रक्षिप्ते समो भागहारो भवति स वशेन उत्कृष्टां स्थिति याति तावती स्थिति यराशिः समकरणो झोषः। (ब्यव. भा. १-१८६, स्थितिरित्युच्यते । xxx यत: स्थितिस्थानान्मपृ. ६७)।
ण्डक प्लुतिन्यायेन डायां-फालां दत्त्वा या स्थितिर्वजिस राशि के मिलाने पर भागहार सम होता है ध्यते ततः प्रभति तदन्ता तावती स्थितिबंद्धा डायउसे झोष राशि कहते हैं।
स्थिरिहोच्यते । सा चोत्यर्षतोऽन्तःसागरोपमटंक-सिलामयपव्वएस् उक्किण्णवाबी कूव-तलाय- कोटीकोटयनसकल कर्मस्थितिप्रमाणा वदितव्या । जिणधरादीणि टंकाणि णाम । (घव. पु. १४, पृ. (पंचसं. मलय. व. बं. क. ११२, पृ. ६२)। ४६५)।
४. यतो यस्याः स्थितेरारभ्य परमः उत्कृष्टो शिलामय पर्वतों पर उकेरी गई बावड़ी, कुमां, बन्धो भवति-उत्कृष्टां स्थिति बध्नाति, तस्याः तालाब और जिनगृह आदि टंक कहलाते हैं। प्रभति सर्वाऽपि स्थितिॉयस्थितिरित्युच्यते । सा टोलगतिवन्दनक-१. टोल्लोव्व उप्फिडंतो प्रोस चोत्कर्षतः किञ्चिद्ना-किञ्चिदूनकर्म स्थितिप्रमाणा क्क हिसक्कणे कुणइ ।। (प्रव. सारो. १५७)। वेदितव्या। (पंचसं. मलय. वृ. उद्व. क. १५) । २. उत्ष्वष्कणं अग्रत: सरणम्, अभिष्वष्कणं पश्चा- १जहां स्थितिस्थान में स्थित होकर उसी प्रकृति दपसरणम्, ते उत्ष्वष्काणाभिष्वष्कणे, टोलवत् तिड्ड. की उत्कृष्ट स्थिति को बांधता है उस स्थिति का वत् उत्प्लुत्य उपप्लुत्य करोति यत्र तट्टोलगतिवन्द नाम डायस्थिति है। ४ जिस स्थिति से लगाकर नकम् । (प्राव. हरि. व. मल. हे. टि. पृ. ८७)। उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता है उससे लेकर ३. अवष्वष्कणं पश्चाद् गमनम्, अभिष्वष्कणम् समस्त स्थिति को डायस्थिति कहते हैं। अभिमुखगमनम् , ते अवष्वष्कणाभिष्वष्कणे, टोलोव्व ढड्ढर-ढड्ढरं महता शब्देनोच्चारयतो वन्दनम् । तिडवदुत्प्लवमानः करोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकम्। (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। (प्रव. सारो. व. १५७, पृ. ३६) ।
उच्च स्वर से उच्चारण करते हुए वन्दना करना, १ टिड्डी अथवा शलभ (पतंगा)के समान उछल उछल । यह वन्दना का एक ढड्ढर नामका दोष है। करके कभी पागे और कभी पीछे वन्दना करने को तटच्छेद-दोहि वि तडेहि णदीपमाणपरिच्छेदो, टोलगतिवन्दनक कहते हैं।
अथवा दवाणं सयमेव छेदो तडच्छेदो णाम । डमरकर-काय वाङ्मनोभिविचित्रं ताडन डम- (धव. पु. १४. पू. ४३६)। रम, तत्करणशीलो डमरकरः। (प्राव. मलय. व. दोनों तटों से नदीके प्रमाणके जानने का नाम तट१०८६, पृ. ५६७)।
च्छेद है, अथवा द्रव्यों का जो स्वयं ही छेदकाय, वचन और मन के द्वारा विचित्र प्रकार के खण्डन-होता है उसे तटच्छेद जानना चाहिए। ताडन (डमर) करने वाले व्यक्ति को डमरकर तत-१. चर्मतनननिमित्तः पुष्कर-भेरी-दर्दरादिकहते हैं। यह अप्रशस्त भावकर है।
प्रभवस्ततः। (स. सि. ५-२४)। २. ततं तंत्रीडमरुक मुद्रा-दक्षिणकरेण मुष्टि बध्वा कनिष्ठि- समुत्थानमवनद्धं मृदंगजम् । (पद्मपु. २४-२०)। काङगष्ठौ प्रसार्य डमरुकवच्चालयेदिति डमरुकमुद्रा। ३. धर्मतननात्तत: पुष्कर-भेरी-दर्दरादिप्रभवः । (त.
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