________________
निमित्तसम्यग्दर्शन] ६१४, जैन-लक्षणावली
[नियंसणे चामराद्यवलोकन-शुभगन्धाघ्राणादिस्वभावा । (प. पारिणामिक भावस्थितः स्वभावानन्त चतुष्ट यात्मकः वि. म. व. ३-१४)।
शुद्ध ज्ञानचेतनापरिणामः स नियमः। (मि. सा.व. उस समय उठते हुए शंख व ढोल प्रादि के शब्द को ३)। ६. Xxx नियमः कालसीमकृत् ॥ सुनना तथा जलपूर्ण कलश, भंगार, छत्र, ध्वजा (धर्मसं. था. ७-१६)। एवं चमर प्रादि को देखना और उत्तम गन्धादि का १ नियम से करने योग्य कार्य को नियम कहा सूंघना; यह निमित्त शुद्धि का स्वरूप है।
जाता है। वह ज्ञान-दर्शन-चारित्रस्वरूप है। निमित्तसम्यग्दर्शन-निमित्तं तु यद् यद् बाह्य २ नियमित काल के लिए किये गये त्याग को वस्तूत्पद्यमानस्य सम्यग्दर्शनस्य प्रतिमादि तत् तत् नियम कहते हैं।
मागहीतम. ततो निमित्तात् प्रतिमादिकात् नियमनिषिद्ध-श्रावस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धोसम्यक्त्वं निमित्त सम्यग्दर्शनमुच्यते । (त. भा. सिद्ध. त्ति होइ नायव्यो। अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा वृ. १-३, पृ. ४०)।
प्रावस्सए जुत्तो। (प्राव. भा. १२२, पृ. २६७) । जो जो प्रतिमादिरूप वस्तु उत्पन्न होने वाले
मल और उत्तर गुणों के अनुष्ठान स्वरूप प्रावश्यक सम्यग्दर्शन का निमित्त होती है उसके निमित्त से
में जो युक्त है उसे नियमनिषिद्ध-नियम से मल उत्पन्न होने वाले उस सम्यग्दर्शन को निमित्त
व उत्तर गणों के अतिचारों से रहित-जानना सम्यग्दर्शन कहा जाता है।
चाहिए। अधवा निषिद्धात्मा- उक्त अतिचारों से निमिष-१. नयनपुट घटनायत्तो निमिषः । (पंचा.
रहित जीव-उक्त लक्षण प्रावश्यक में युक्त होता अमृत.व. २५) । २. नयनपुटविघटनेन व्यज्यमान:
ही है। इस प्रकार प्रावश्यकी और नषेधिकी दोनों संख्यातीतसमयो निमिषः। (पंचा. जय.व. २५)।
क्रियानों को समानार्थक समझना चाहिए। ३. तादर्शरसंख्यातसमयः निमिषः अथवा नयनपुट
नियाग-नियांगमित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं घटनायत्तो निमेषः। (नि. सा. व. ३१)। ..
नित्यम्, न त्वनामन्त्रितस्य । (दशव. सू. हरि.. १ नेत्रपुटों को घटनाके अधीन काल को निमिष कहते हैं। अभिप्राय यह है कि प्रांखों के पलकों के मिलने ३-२, पृ. ११६) ।
सदा प्रामंत्रित पाहार को ही ग्रहण करना, अनामें जितना समय लगता है उतने समय का नाम
मंत्रित को ग्रहण न करना; इसका नाम नियाग निमिष या निमेष है। नियतिवाद-१. जत्त जदा जेण जहा जस्स य है। यह सयमी साध का अनाचरित है। णियमेण होदि तत्त तदा। तेण तहा तस्स हवे इदि नियोग-अहिगो जोगो निजोगो जहाहदानो भवे बादो णियदिवादो दु ।। (गो. क.८८२) । २. जेण निदाहो त्ति । अत्यनिउत्तं सुत्तं पसबइ चरणं जयो जदा जंतु जहा णियमेण य जस्स होइ तं तु तदा। मुक्खो ।। (बृहत्क. १९४) । तस्स तहा तेण हवे इदि वादो णियदिवादो दु॥ "नि' का अर्थ अधिकता है। सूत्र के साथ अर्थ के (अंगप. २-२२)।
अधिक योग को नियोग कहते हैं। प्रर्थ की अधि. १जो जिस समय में, जिससे, जैसे और जिसके नियम कता से नियुक्त सूत्र उस चरित्र को उत्पन्न करता से होता है वह उस समय, उसीके द्वारा, उसी प्रकार
है जिस के प्राश्रय से मुक्ति प्राप्त होती है। से और उसके होगा ही। इस प्रकार के कथन को नियंसरग-१. पाडगणियंसणभिक्खापरिमाणंनियतिवाद कहते हैं।
इमम् एव पाटकं प्रविश्य लब्धां भिक्षां गृह्णामि, नियम-१.णियमेण य जं कज्ज तणियमं णाण- नान्यम; एकमेव पाटकं पाटकद्वयमेवेति । प्रस्थ दसण-चरित्तं ॥ (नि. सा. ३)। २. नियमः परिमि- गृहस्य परिकरतया अवस्थितां भूमि प्रविशामि, न नकालो xxx॥ (रत्नक.८७) । ३.XX गृहभित्थमभिग्रहः णियंसणमित्यूच्यते इति केचिद ४ सावधिनियमः स्मतः॥ (उपासका. ७६१)। वदन्ति । अपरे सू पाटस्य भभिमेव प्रविशाल , ४. विहिताचरणं निषिद्धपरिवर्जनं च नियमः। पाटगृहाणि इति संकल्प: पाडगणियंसणमित्यच्यते (नीतिवा. १-२१, प. १५)। ५. यः सहजपरम- इति कथयन्ति। (भ. प्रा. विजयो. टी. २१०।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org