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निवन्धन]
६१३, जन-लक्षणावलो
[निमित्तशुद्धि
परीषहभीरुणा वस्त्र-पात्रादिग्रन्थो गृहीत इत्यन्तः- निमित्तं ज्ञात्वा यो लोकस्यादेशं करोति स निमित्तसन्तापरूपा निन्दा । (भ. प्रा. मूला. ८७)। कुशीलः । (भ. प्रा. विजयो. टी. १६५०)। १ यथार्थ व अयथार्थ दोषों के प्रकट करने की अष्टांग निमित्तको जानकर जो अन्य जनों को प्रादेश जो इच्छा होती है उसे निन्दा कहा जाता है। देता है उसे निमित्त कुशील कहते हैं। २ चारित्रयुक्त नीव के जो अपने प्राय पश्चात्ताप निमित्तदोष-१. वंजणमंग च सर छिण्णं भूम च होता है उसे निन्दा कहते हैं ।
अंतरिक्ख च । लक्खण सुविणं च तहा अट्टविहं होइ निबन्धन-निबध्यते तदस्मिन्निति निबन्धनम् ।
णेमित्त ।। (मूला. ६-१०)। २. अंग स्वरो व्यंजजं दब्वं जम्हि निबद्धं तं णिबंधणं । (धव. पु. १५, नं लक्षणं छिन्नं भौमं स्वप्नोऽन्तरिक्षमिति एवं भूत
निमित्तोपदेशेन लब्धा वसतिनिमित्तदोषदष्टा। (भ. जो द्रव्य जिसमें सम्बद्ध है उसे निबन्धन कहते हैं। प्रा. विजयो. २३०; कार्तिके. टी. ४४८-४६)। निमग्ना-णिय जलभर उवरिगदं दव्वं लहुगं पि
३. निमित्तेन भिक्षामुत्पाद्य यदि भुक्ते तदा तस्य
निमित्तनामोत्पादनदोषः। (मला. व. ६-३०)। णेदि हेटुम्मि । जेणं तेणं भण्ण इ एसा सरिया णिमग त्ति ॥ (ति. प. ४-२३६; त्रि. सा. ५६५)।
४. स्वरान्तरिक्ष-भौमांग-व्यंजन-च्छिन्नलक्षणम् । अपने जलप्रवाह में पड़े हुए लघु (हलके) द्रव्य को र
स्वप्नाष्टांगनिमित्तर्य निमित्तमशनार्जनम् ।। (प्राचा. भी जो नदी नीचे ले जाती है उसका नाम निमग्ना
सा. ८-३६)। ५. अंगादिनिमित्तोपदेशाल्लब्धा
निमित्तदुष्टा। (भ. प्रा. मूला. टी. २३०)। ६. निमंत्रण -१.xxxणिमंतणा होइऽगहिएणं ।
स्वरान्तरिक्ष भौमाङ्ग-व्यञ्जन-च्छिन्न-लक्षण-स्वप्ना
ष्टाङ्गनिमित्तरशनार्जनं निमित्तम । (भावप्रा. टी. (प्राव. नि. हरि. व. ६९७)। २. तथा निमंत्रणा भवत्यगृहीतेनानशनादिना अहं भवतोऽशनाद्यानया
९६)। मीति । (प्राव. हरि. ५.६६७)। ३. निमंत्रणं अहं
१ व्यंजन, अंग, स्वर, छिन्न, भौम, अन्तरिक्ष, ते भक्तं लब्ध्वा दास्यामीति । उक्तं च-पुब्वगहि.
लक्षण और स्वप्न; यह पाठ प्रकार का निमित्त
है। इस निमित्त के द्वारा भिक्षा को उत्पन्न करके एण छंदण निमंतणा होइऽगहिएणं । (अनुयो हरि.
ग्रहण करना, यह निमित्तनामक उत्पादनदोष है।
२ अंग, स्वर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न २ 'मैं आपके लिए भोजन लाता हूं' इस प्रकार प्रग.
और अन्तरिक्ष इस प्रकार के निमित्त के उपदेश होत भोजन प्रादि के प्राश्रय से निमंत्रणा होती है।
द्वारा जो वसतिका प्राप्त की जाती है वह निमित्तनिमित्त-१.तिविहं होइ निमित्ति, तीय-पड़प्पन्न
दोष से दुष्ट होती है। ऽणागयं चेब । तेण न विणा उ नेयं नज्जइ तेणं
निमित्तपिण्ड-१. निमित्तम् अङ्गुष्ठप्रश्नादि, निमित्तं तु ॥ (बहत्क. भा. १३१३)। २. अतीत
__ तदवाप्तो निमित्तपिण्डः । (प्राचारा. सू. शी. ब. भविष्यद्वर्तमानकालत्रयवति लाभादिभावकथनं निमि
२७३, पृ. ३२०) । २. प्रतीतानागत-वर्तमानकालेष तं भवति । (प्राव. ह. व. मल. हेम. टि. पृ. ८३;
लाभालाभादिकथनं निमित्तम्, तद् भिक्षार्थं कुर्वतो प्रव. सारो. व. ११४) । ३. तीयाइभावकहणं होइ
निमित्तपिण्डः । (योगशा. स्वो. विव. १-३८)। निमित्तं xxx(प्रव. सारो. ११४)।
१अंगष्ठप्रश्न प्रादि विद्याविशेष के निमित्त से, १ तीनों काल सम्बन्धी लाभ-अलाभ का कारण
भोजन प्राप्त करने पर निमित्तपिण्ड नामक दोष भूत निमित्तशास्त्र प्रतीतादि के भेद से तीन प्रकार का भागी होता है । २ अतीत, अनागत और वर्तका है। चूंकि ऐसे (चूडामणि प्रादि) शास्त्र के मान इन तीन कालविषयक लाभालाभादि के कहने बिना लाभालाभादि का ज्ञान सम्भव नहीं है, अत: का नाम निमित्त है। उसे भिक्षा का साधन बनाने उनके जानने का निमित्त होने से उसे निमित्तशास्त्र
से निमित्तापण्ड नामका उत्पादनदोष होता है। कहा जाता है।
निमित्तशुद्धि-निमित्तशुद्धिः तत्कालोच्छलितशङ्खनिमित्तकुशील-कश्चिनिमित्तकुशीलः अष्टांग- पणवादिनिनादश्रवण - पूर्ण कुम्भ-भृगार-छत्र. ध्वज
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