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निरता
६१५, जैन-लक्षणावली निरन्तर अवक्रमणकालविशेष २. पाडयणियंसणपरिमाणम्-एकमेव पाटकं पाट- छेद कर जो उसका फिर से प्रारोपण किया जाता कद्वयमेव वा प्रविश्य भिक्षाग्रहणं निवसनपरिमाणम्। है उसे, अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ को प्राप्त यदि वा प्रत्य गृहस्य परिकरतयावस्थिता भमि होने पर-जैसे पार्श्वनाथ के तीर्थ से वर्द्धमान प्रविशामि, न गृहम, इत्येवं ग्रहेण भिक्षाग्रहणं निव- स्वामी के तीर्थ में संक्रमण करने वाले साध के जो सन परिमाणम् । अन्य पाटकभूमिमेव प्रविशामिन चारित्र होता है उसे निरातचार छदोपस्थापन पाटकगृहाणीति भिक्षावल्पं पाट कनियमनपरिमाण-कहते हैं। माहुः । (भ. प्रा. मूला. २१६)।
निरतिचारिता-देखो अतिचार । सुशवाण मांस१ इस महल्ला अथवा गली में प्रवेश करके प्राप्त भवखण-कोह-माण-माया लोह-हस्स र इ . [घर इ. ] भिक्षा को ग्रहण करूंगा, अथवा एक हो या दो सोग - भय-दगंच्छित्थि पूरिस-ण वंस यवे यापरिच्चागो मुहल्लों में प्रवेश करके प्राप्त भिक्षा को ग्रहण अदिचारो। एदेसि विणासो णिरदिचारो संपुण्णदा, करूंगा, दूसरे महल्ले में प्रवेश न करूंगा; इस प्रकार तस्स भावो निरदिचारिदा। (घव. पु. ८, पृ.८२)। के नियम का नाम नियंसण है । कितने ही प्राचार्यो मद्यपानादि के त्याग न करने रूप अतिचार के का कहना है कि इस घर के परिकर (परिवार) प्रभाव को उनके परित्याग को-निरतिवारिता स्वरूप से स्थित भूमि में प्रवेश करूंगा, घर में कहते हैं। नहीं; इस प्रकार की प्रतिज्ञा को नियंतण कहा निरनकम्प-जो उपर कंपतं दटठण न कंपये जाता है । अन्य प्राचार्यों का अभिमत है कि मुहल्ले
कढिणभावो। एसो उ निरणुकपो प्रणु पच्छाभावकी भमि में ही प्रवेश करूंगा, घरों में नहीं; इस जोएणं ॥ (बृहत्क. १३२०)। प्रकार के नियम को पाङगनियंसण कहते हैं।
जो कठोरहृदय दूसरे को पीड़ा से कांपता हमा निरत-देखो नारक | हिसादिष्वसदनुष्ठानेषु देखकर स्वयं कम्पित नहीं होता है उसे निरनुकम्प व्यापृता: निरताः। (धव. पु. १, पृ. २०१)।
कहते हैं। 'मनु' का अर्थ पश्चात् है, तदनुसार मो हिंसादिरूप असदाचरण में उद्यत रहते हैं उन्हें
दुखित जीव के कांपने के पश्चात् जो कम्पन होता निरत या नारक कहा जाता है।
है उसका सार्थक नाम अनुकम्पा है । इस अनुकम्पा निरतगति-देखो नारकगति । तेषां (निरतानां)
से जो रहित होता है वह निरनुकम्प कहलाता है। गतिनिरतगतिः । (धव. पु. १, पृ. २०१ ।। निरतों (नारकों) की गति को निरतगति (नार
निरनुतापी-निरणुतावी-जो अकिच्च काऊण गति) कहते है।
नाणुतप्पइ; जहा मए दुट्ठ कयं । (जीतक. पू. १, निरतिचार छेदोपस्थापन-१. तत्र निरतिचारमित्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य यदारोप्यते, यद्वा
जो प्रकृत्य को नहीं करने योग्य कार्य कोतीर्थान्त र प्रतिपत्ती-यथा पार्श्वस्वामितीर्थाद् वर्द्ध
करके 'मैंने बुरा किया है' इस प्रकार से पश्चात्ताप
नहीं करता है उसे निरनतापी कहते हैं। मानतीर्थ संक्रामतः। (अनुयो. हरि.व.प.१०४ २. तत्र शिक्षकस्य निरतिचारमधीतविशिष्टाध्ययन- निरन्तर-णिग्गयमंतरं जम्हा गुणदाणादो तं गुणविदः, मध्यमतीर्थकरशिष्यो वा यदोपसम्पद्यते चरम द्वाणं णिरंतरं।xxx णस्थि अंतरं णिरंतरं। तीर्थक रशिष्याणामिति । (त. भा. सिद्ध... . (षव. पु. ५, पृ. ५५-५६)। १८)। ३. तत्र निरतिचारं यत् इत्वरसामायिक- जिस गुणस्थान से अन्तर नहीं होता है वह निरन्तर वतः शैक्षस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङक्रान्तो वा-यथा कहलाता है। पार्श्वनाथतीर्थाद वर्द्धमानस्वामितीथं संक्रामतः निरन्तर प्रवक्रमरणकालविशेष-पढमवक्कमणपञ्च यामधर्मप्रतिपत्तौ । xxx उक्त च- केदयजहण्णकाले तस्सेव उक्कस्सकालम्मि सोहिदे से हस्स निरइयारं तित्थंतरसंक मे व तं होजा। सेसो णिरंतरवक्कमणकालविसेसो णाम । (घव. पु. (प्राव. नि. मलय. व. ११४, पु. ११६)।
१४, प. ४७८) । १इत्यरसामायिक वाले शिष्य साध के पूर्व पर्याय को प्रथम प्रवक्रमणकाण्डक के जघन्य काल को उसी के
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