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नोश्रागमद्रव्योत्तर ]
ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त के भेद से तीन प्रकार को सामायिक को नोनागमद्रव्यसामायिक कहा जाता है । सामायिक के ज्ञाता का जो शरीर है वह भी सामायिकज्ञान में कारण है, क्योंकि श्रात्मा के समान शरीर के बिना सामायिकज्ञान सम्भव नहीं है । इसलिए प्रत्ययसामायिक का कारण होने से तीन काल सम्बन्धी शरीर भी सामा यिक शब्द का प्रभिधेय होता है । नोश्रागमद्रव्योत्तर नागमतो ( द्रव्योत्तरं ) ज्ञशरीर भव्यशरीरे तद्व्यतिरिक्तं च । तत्र तद्व्यतिरिक्तं विघा सचित्ताचित्त मिश्रभेदेन । सचित्तं पितुः पुत्रः प्रचित्तं क्षीरात् दधि मिश्र जननीशरीरतो रोमादिमदपत्यम् । (उत्तरा. नि. शा. वृ. १, पृ. ३) १
तत्र
ज्ञशरीर, भावी शरीर और तद्द्व्यतिरिक्त को नोप्रागमद्रव्योत्तर कहते हैं । उत्तर पदार्थ विषयक ज्ञाता का शरीर ज्ञशरीर कहलाता है । भविष्य जो उसका ज्ञाता होने वाला है उसके शरीर को भव्य ( भावी) शरीर कहा जाता है। सचित्त, श्रचित्त और मिश्र के भेद से तद्व्यतिरिक्त तीन प्रकार का है— पिता से होने वाला पुत्र सचित्त तद्व्यतिरिक्त है, दूध से उत्पन्न होने वाला दही प्रचित्त तद्व्यतिरिक्त द्रव्योत्तर है, तथा माता के शरीर से उत्पन्न होने वाला रोमादियुक्त पुत्र मिश्र तद्व्यतिरिक्त द्रव्योतर है । नोश्रागमभाव-उपशामना -- णोश्रागमभावुवसामणा उवसंतो कलहो जुद्धं वा इच्चेवमादि । ( धव. पु. १५, पृ. २७५) ।
शान्त हुए झगड़े या युद्ध आदि का नाम नोश्रागमभाव-उपशामना है । नोप्रागमभावकर्मणोप्रागमभावो पुण कम्मफलं भुंजमाणगो जीवो । (गो. क . ६६ ) ।
कर्मफल के भोगने वाले जीव को नोश्रागमभावकर्म कहते हैं । नोप्रागमभावकर्म प्रकृतिप्राभृत-प्रागमेण विणा तदट्ठवजुत्तो णोप्रागमभाव कम्मपय डिपाहुडमुवयारादो । ( धव. पु. 8, पृ. २३० ) ।
श्रागम के बिना जो उसके अर्थ में उपयोगयुक्त है नोद्यागमभावदिठ्ठिनादो । ( धव. पु. ६, पृ. २०५) ।
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[नोश्रागमभावदष्टिवाद
संख्यानां तीर्थंकृतामत्र भारते प्रवृत्तानां वृषभादीनां जिनवरत्वादिगुणज्ञान श्रद्धान पुरस्सरा चतुर्विंशतिस्तवन- पठनक्रिया नोश्रागमभावचतुर्विंशतिस्तव इह गृह्यते । (भ. प्रा. विजयो. ११६, पृ. २७४) । २. चतुर्विंशतिस्तवपरिणतपरिणामो नोश्रागमभावस्तव इति । (मूला. वृ. ७-४१) ।
१ वृषभादि चोबीस तीर्थंकरों के जिनवरत्व श्रादि गुणों के ज्ञान और श्रद्धानपूर्वक चतुविशतिस्तवन पढ़नेरूप क्रिया का नाम नोश्रागमभावचतुविशतिस्तव है । २ चोबीस तीर्थंकरों की स्तुति करने रूप परिणाम से परिणत जीव को नोश्रागमभावचतुविशतिस्तव कहते हैं ।
नोश्रागमभावच्यवनलब्धि - ग्रागमेण विणा प्रत्यो जुत्तोनोप्रागमभावचयणलद्धी । ( धव. पु. ६, पृ. २२८ ) ।
आगम के बिना जो व्यवनलब्धि के अर्थ में उपयुक्त है उसे नोश्रागमभावच्यवनलब्धि कहते हैं । नोग्रागमभावजीव - १. जीवनपर्यायेण मनुष्यजीवत्व पर्यायेण वा समाविष्ट आत्मा नोनागमभावजीव: । ( स. सि. १-५) । २. जीवनादिपर्यायाविष्टोऽन्यः । जीवनादिपर्यायेणाऽऽविष्ट श्रात्माऽन्यो नोप्रागमतो भाव इत्युच्यते । (त. वा. १, ५, ११) । ३. नोग्रागमः पुनर्भावो वस्तु तत्पर्ययात्मकम् । द्रव्यादर्थान्तरं भेदप्रत्ययाद् ध्वस्तवाधनात् ॥ X X X ततोऽन्यस्य जीवादिपर्यायाविष्टस्यार्थादेन प्रागमभावजीवत्येन व्यवस्थापनात् । (त. इलो. १, ५, ६८ ) । ४. जीवादिपर्यायाविष्टो नोश्रागमः । ( न्यायकु. ७४, पृ. ८०७ ) । ५. विवक्षितपर्यायपरिणतो नोश्रागमभावः । ( लघीय. प्रभय. वृ. ७, २, पृ. ६८ ) । ६. जीवनपर्यायेण समाविष्ट श्रात्मा नोश्रागमभावजीवः मनुष्यजीवनपर्यायेण वा समाविष्ट श्रात्मा नोश्रागमभावजीवः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) 1
१ जीवनरूप पर्याय से अथवा मनुष्यजीवनपर्याय से युक्त श्रात्मा को नोश्रागमभावजीव कहा जाता है । नोश्रागमभावदृष्टिवाद - श्रागमेण विणा केवलो - हि-मणपज्जवणाणं हि दिट्टिवादवृत्तत्थपरिच्छेदप्रो
उसे नोश्रागमभावकर्म प्रकृतिप्राभूत कहते हैं । नोश्रागमभाव चतुर्विंशतिस्तव - १. चतुर्विंशति
६४७, जैन- लक्षणावली
श्रागम के विना केवलज्ञान, अवधिज्ञान या मन:पर्ययज्ञान के द्वारा दृष्टिवाद में प्ररूपित पदार्थों के
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