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नोपागमभावनन्दी] ६४८, जैन-लक्षणावली
[नोग्रागमभावव्रत जानने वाले को नोमागमभाव दृष्टिवाद कहते हैं। अर्हन्नमस्काराशुपयोग: खल्वागमैकदेशत्वात् नोप्रानोग्रागमभावनन्दी-नोग्रागमतः (भाववन्दी) गमतो भावमङ्गलमिति । (प्राव. हरि. व. पृ. ६)। पच्चप्रकारं ज्ञानम् । (प्राव. हरि. व. प. ७)।
१ अतिशय विशुद्ध क्षायिक प्रादि (प्रौपशमिक) पांच प्रकार के ज्ञान को नोग्रागमभावनादी कहते हैं। भाव को नोग्रागमभावमंगल कहा जाता है। यहां
'नो' शब्द प्रागम का सर्वथा निषेधक है। अथवा नोप्र.गमभावनमस्कार-नमस्क्रियमाणाहदादि
सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप उपयोग परिणाम गुणानुरागवतः मुकुलीकृतकर-कमलस्य प्रणामो नो
को नोप्रागमभावमंगल जानना चाहिए। यहां 'नो' प्रागमभावनमस्कारः। (भ. प्रा. विजयो. ७५३) ।
शब्द प्रागम और अनागम के मिश्रण का बोधक है। जिनको नमस्कार किया जा रहा है ऐसे प्ररहन्त
अथवा अरहन्त प्रादि को किये जाने वाले नमस्कार प्रादि के गणों में अनुरागयुक्त होकर हाथों को
के ज्ञान और क्रियारूप मिश्र परिणाम को नोग्रागजोड़ने वाला जीव जो उनको प्रणाम करता है उसे
मभावमंगल कहते हैं। नोग्रागमभावनमस्कार कहते हैं।
नोप्रागमभावमास-तत्र नोआगमतः खलु मूलानोग्रागमभावनारक-णिरयगदिणामाए उदएणविक मल-कंद-कांड-पत्र-पुष्प-फल वेदकः । किमुक्त णिरय भावमुवगदो णोप्रागमभावणे रइनो णाम ।
भवति ? यो धान्यमाषजीवो घान्यमाषभवे वर्तमानो (धव. पु. ७, पृ. ३०)।
मूलरूपतया कंदरूपतया कांडरूपतया पत्ररूपतया नरकगति नामकर्म के उदय से नारक पर्याय को
पुष्परूपतया फलरूपतया वा धान्यमाषभावायूर्वेदयते प्राप्त हुए जीव को नोग्रागमभावनारक कहते हैं।
स नोग्रागमतो भावमासः, प्राकृते माषशब्दस्यापि नोमागमभावपूर्वगत-पागमेण विणा केवलोहि मास इति रूपसम्भवात् । (व्यव. मलय. व. २.२६, मणपज्जणाणेहिं पुव्वगयत्थपरिच्छेदो गोमागम- पु. ६)। भावपुव्वगयं । (धव. पु. ६, पृ. २११) ।
मास (माष) अर्थात् उड़द नामक धान्यभव में प्रागम के विना केवलज्ञान, प्रवधिज्ञान अथवा
वर्तमान जो जीव मूल, कन्द, कांड, पत्र, पुष्प और मनःपर्ययज्ञान के द्वारा पूर्वगत श्रुत में प्ररूपित अर्थ फलरूप अवस्था द्वारा घान्यमाषभावरूप प्राय का के जानने वाले को प्रागमभावपूर्वगत कहते हैं।
वेदन करता है उसे नोग्रागमभावमास कहते हैं। नोप्रागमभावप्रतिक्रमण-अशुभपरिणामदोषम- 'माष' शब्द का प्राकृत में 'मास' ऐसा रूप सम्भव वबुध्य श्रद्धाय तत्प्रतिपक्षपरिणामवृत्तिर्नोग्रागमभाव- है, अत: उसका 'मास' रूप में व्याख्यान किया प्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. ११६) ।
गया है। प्रशभ परिणामरूप दोष को जानकर उसके विरोधी नोग्रागमभावराग-नोग्रागमतो रागवेदनीयकोपरिणाम की प्रवृत्ति को नोग्रागमभावप्रतिक्रमण दयप्रभवः परिणामविशेषः । (प्राव. नि. हरि. व. कहते हैं। नोप्रागमभावमंगल-१. नोग्रागमो भावो रागवेदनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले परिसुविसुद्धो खाइयाईयो ।। अहवा सम्मदर्दसण नाण- णामविशेष को नोग्रागमभावराग कहते हैं। चरित्तोवप्रोगपरिणामो । नोग्रागमनो भावो नोसहो नोप्रागमभावव्रत-नोग्रागमभावव्रतं नाम चारिमिस्सभावंमि ।। अहवेह नमुक्काराइनाण-किरियावि. मोहोपशमात् क्षयोपशमात् क्षयाद्वा प्रवृत्तो मिस्सपरिणामो। नोग्रागमयो भण्णइ जम्हा से हिंसादिपरिणामाभावः अहिंसादिव्रतम् । प्राणिनां पागमो देसे (सो)॥ (विशेषा. ४६-५१)। वियोजने प्राणानाम्, असदभिधाने, अदत्तादाने, २. नोग्रागमतो भावमङ्गलम् प्रागमवर्ज ज्ञानचतुष्ट. मिथनकर्मविशेषे, मुर्छायां वा परिणतिरिति यमिति, सर्वनिषेधवचनत्वान्नोशब्दस्य । अथवा यावत् । (भ. प्रा. ११८५)। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रोपयोगपरिणामो यः स नागम चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से एव केवलः, न चानागमः, इत्यतोऽपि मिश्रवचन- प्रवृत्त हुए हिंसादिरूप परिणामों के प्रभाव को स्वानोशब्दस्य नोग्रागमत इत्याख्यायते । अथवा नोप्रागमभावव्रत कहते हैं ।
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