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पश्चात् संस्तुति ]
सम्बन्ध ( परिचयघटन) को करता है, इसे पूर्व संस्तव कहा जाता है तथा उन्हीं के साथ पश्चात् कालभावी सास-ससुर श्रादि के रूप से जो संस्तवसम्बन्ध करता है, यह पश्चात्संस्तव कहलाता है । इस प्रकार भोजन श्रादि के देने पर जो साधु सत्य या सत्य गुणों के कीर्तन से दाता की प्रशंसा करता है, इसे पश्चात्संस्तव कहा जाता है (इसे यहां ४८४-६३ गाथाओं द्वारा स्पष्ट किया गया है ) । ३ रहने के पश्चात् जाते समय पुनः वसति की प्राप्ति की इच्छा से जो प्रशंसा की जाती है, इसमें साधु पश्चात्संस्तव दोष का भागी होता है । पश्चात् संस्तुति - देखो पश्चात्संस्तव । पश्चादानुपूर्वी उपक्रम - जं उवरीदो हेट्ठा परिवाडीए उच्चदि सा पच्छाणुपुथ्वी । तिस्से उदाहरणं - एस करेमि य पणमं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं सिवसुहकंखाविलोमेण ॥ ( धव. पु. १, पृ. ७३ ) ; विलोमेण परूवणा पच्छाणुपुव्वी णाम । ( धव. पु. ६, पृ. १३५) ।
जो प्ररूपणा ऊपर से नीचे की परिपाटी से अर्थात् विपरीत क्रम से की जाती है, इसे पश्चादानुपूर्वी उपक्रम कहा जाता है । जैसे— मैं मोक्षसुख की इच्छा से वर्धमान जिनेन्द्र को तथा शेष जिनेन्द्रों को भी नमस्कार करता हूं, यह प्ररूपणा । पश्चिम दिशा-जत्तो अ प्रत्थमेइ उ अवरदिसा सा उ णायव्वा । ( आचारा. नि. ४७ ) ।
जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उसे पश्चिम दिशा मूढता कहलाती है ।
६६८, जैन- लक्षणावली
जानना चाहिए। पाक्षिक श्रावक - १ x x x तत्र पाक्षिकः । तद्धर्मगृह्यः × × × ॥ ( सा. ध. १ - २० ) ; कोsat पाक्षिक:, किंरूपः ? तद्धर्मगृह्यः तस्य श्रावकस्य, धर्म एकदेशहिंसादिविरतिरूपं व्रतम्, गृह्यं प्रतिज्ञाविषयो यस्यासी प्रारब्धदेशसंयमः, श्रावकधर्मस्वीकारपर इत्यर्थः । (सा. ध. स्वो. टी. १ - २० ) । २. सम्यग्दृष्टिः सातिचारमूलाणुव्रतपालकः । अर्चादिनिरतस्त्वग्रपदं कांक्षीह पाक्षिकः ॥ ( धर्मसं. श्री. ५ - ४ ) ।
पक्ष:
१ जिसने श्रावक के एकदेशहिंसादिविरतिरूप व्रत को प्रतिज्ञा का विषय बना लिया है—उसके पालन करने में जो उद्यत हुआ है—उसे पाक्षिक श्रावक कहा जाता है ।
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[पाठ
पाक्षिकापाक्षिक -- पाक्षिकापाक्षिकः यस्य एकस्मिन् पक्षे कामोदय:, न द्वितीये । (प्रा. वि. पू. ७५)।
मास के दो पक्षों में से जिसके एक पक्ष में कामभाव उदित होता है, पर दूसरे पक्ष में वह उदित नहीं होता, ऐसे व्यक्ति को पाक्षिकापाक्षिक कहते हैं । पाखण्डिमूढता - १. सग्रन्थारम्भहिंसानां संसारावर्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखण्डि - मोहनम् ॥ ( रत्नक. १ - २४ ) । २. पाखण्डिमूढता दण्ड - पात्रामत्रादिसंगिषु । सन्मतिः स्वागमाभासभ्रान्तस्वान्तान्यलिंगिषु ॥ ( आचा. सा. ३-४७ ) । ३. दृष्ट्वा मंत्रादिसामर्थ्यं पापिपाषण्डिचारिणाम् । उपास्तिः क्रियते तेषां सा स्यात् पाषण्डिमूढता ॥ ( भावसं वाम. ४०६ ) । ४. सग्रन्था हिंसनारम्भकृतो ये भववश्यगाः । तेषां भक्त्या परीष्टिर्यत् बोया पाखण्डमूढता ॥ ( धर्मसं. श्री. ४-४२)। ५. बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहवतां पाषण्डिनां कुगुरूणां नमस्कारादिकरणं [पाषण्डिमूढम् ] । ( कार्तिके. टी. ३२६ ) ।
१ जो परिग्रह और प्रारम्भ से सहित होकर संसार में परिभ्रमण कराने वाले विवाहादि कार्यों में तत्पर रहते हैं ऐसे ढोंगी साधुओं का आदर-सत्कार करना, इसे पाखण्डिम्ढता कहा जाता है । ३ पापी पाखण्डियों की मंत्रादिविषयक शक्ति को देखकर उनकी जो उपासना की जाती है, वह पाखण्डि -
पाटक निवसनपरिमाण - देखो नियंसण | पाटच्चर - पाटच्चरश्चौरो वन्दिकारो वा । ( नीतिवा. १४ - १९ ) ।
चोर अथवा वन्दिकार को पाटच्चर कहा जाता है। पाठ-पठनं पाठः, पठ्यते वा तदिति पाठः, पठ्यते वा ऽनेनास्मादस्मिन्निति वा अभिधेयमिति पाठः, व्यक्तीक्रियत इति भावार्थ: । ( श्राव. नि. हरि. वू. १३० ) ।
पठन मात्र क्रिया को श्रथवा जो कुछ पढ़ा जाता है, जिसके द्वारा पढ़ा जाता है, अथवा जिससे या जिसमें श्रभिधेय - प्ररूपणीय अर्थ को स्पष्ट किया जाता है उसका नाम पाठ है । यह प्रवचन का समानार्थक नामान्तर है ।
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