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कुलकरगंडिका] ३६२, जैन-लक्षणावली
[कुशील स्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ।। कुलानां धारणादेते मता कुल्माषक्षेत्र-कुल्माषक्षेत्रं नाम यत्र कुलत्थ-मुद्गकुलधरा इति । युगादिपुरुषा प्रोक्ता युगादौ प्रभवि- माष-राजमाषादीनि कोषधान्यानि विशेषेण निष्पद्यष्णवः ।। (म. पु. ३, २११-१२; लो. वि. ५, न्ते । (प्रायश्चित्तस. टी. १३९)। १२०-२१)।
कुलथी, मूंग, उड़द और बरबटी प्रादि दिव्य धान्य १ कर्मभूमि के प्रारम्भ में जो कुलों की व्यवस्था जिस क्षेत्र में विशेषरूप से उत्पन्न हों उसे कुल्माषकरने में कुशल होते हैं उन्हें कुलकर कहते हैं । ऐसे क्षेत्र कहते हैं। कुलकर वर्तमान में प्रतिश्रुति प्रादि नाभिराय पर्यन्त कुव्यापारनिषेधपोषध-कुव्यापारनिषेधपोषधस्तु १४ हुए हैं।
देशत एकतरस्य कस्यापि कुव्यापारस्याकरणम्, सर्वकलकरगंडिका - इहैकवक्तव्यतार्थाधिकारानगता तस्तु सर्वेषामपि कृषि-सेवा-वाणिज्य-पाशुपाल्यगण्डिका उच्यन्ते, तासमनुयोगः अर्थकथनविधिः गण्डि- गृहकर्मादीनामकरणम् । (योगशा. स्वो. विव. ३, कानुयोगः । तथा चाह-गंडियाणुयोगे णमित्यादि। ८५, पृ. ५११) । तत्थ कुलगरगंडियासु कुलगराणं विमलवाहणादीणं कुव्यापारनिषेधपोषध वह है जिसमें एक देशरूप पुव्वजम्मणामादि कहिज्जइ। (नन्दी. हरि. वृ. पृ.
__ में किसी एक ही कव्यापार-सावधव्यापार-को १०६)।
छोड़ा जाता है; तथा सर्वदेशरूप में कृषि, सेवा जो एक वक्तव्यता अर्थाधिकार से अनुगत होती हैं
वाणिज्य, पशपालन और गहकार्य प्रादि सभी व्यावे गण्डिका कहलाती हैं। उनके अनुयोग-कथन पारों मी छोड़ा जाता है । की विधि-को गण्डिकानयोग कहा जाता है। कुल- कुशल-१. कुशलं सुखनिमित्तम् । (प्रा. मी. बसु. करगण्डिकाओं में विमलवाहन आदि कलकरों के वृ.८)। २. कुशलं मिलितानां सुख-दुःखतद्वार्ता पूर्व जन्म के नाम प्रादि का निरूपण होता है। प्रश्नः । (प्रश्नव्या. अभय. वृत्ति पृ. १६३)। कुलचर्या- लब्धवर्णस्य तस्येति कुलचर्याऽनु
१ सुख के कारणभूत पुण्य कर्म को कुशल कहते हैं । कीर्त्यते । सात्विज्यादत्तिवार्तादिलक्षणा प्राक् प्रप
२ मिलने वाले लोगों से परस्पर में सुख-दुःखविषञ्चिता ।। विशुद्धा वृत्ति रस्यार्यषट्कर्मानुप्रवर्तनम् ।
यक समाचार के पूछने को कुशल कहते हैं । गृहिणां कुलचर्थेष्टा कुलधर्मोऽप्यसौ मतः ।। (म. पु.
कुशलभाव--कुशलो भावो ज्ञानादिरूपः। (व्यव.
मलय. वृ. १-३६, पृ. १६)। ३८, १४२-४३) । आर्यषट्कर्मवृत्तिः स्यात् कुल
प्रतिसेवकपने का परिणाम होता है चर्याऽस्य पुष्कला ।। (म. पु. ३६-७२)।
उसे भावरूप प्रतिसेवना कहते हैं। यह भाव कुशल वर्णसंस्कार हो जाने के पश्चात् पूजा करने, दानादि
और अकाल (अविरति पादिरूप) के भेद से दो देने तथा अपने कुल के अनुसार प्रसि-मषि प्रादि
प्रकार का है। उनमें समीचीन ज्ञानादिरूप भाव को छह कर्मों द्वारा आजीविका करने को कुलचर्या कहते
कुशलभाव कहते हैं। हैं । इसे कुलधर्म भी कहा जाता है।
कुशलमूलनिर्जरा-परिषहजये कृते कुशलमूला कुलमानवशार्तमरण-कुलेन रूपेण बलेन श्रुतेन या शभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । (स. सि. ६-७; ऐश्वर्येण लाभेन प्रज्ञया तपसा वा आत्मान- त. वा. ६, ७, ७)। मृत्कर्षयतो मरणमपेक्ष्य विख्याते विशाले उन्नते परीषहों को जीतने पर जो कर्मों की निर्जरा होती कुले समुत्पन्नोऽहमिति मन्यमानस्य मृतिः कुलमान- है उसे कुशलमला निर्जरा कहते हैं, क्योंकि वह वशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५, पृ. ८६)। पूर्वकर्मों की निर्जरा के साथ कुशल अथात् पुण्यकल प्रादि से अपने को उन्नत करने वाला अपने मरण की अपेक्षा करके 'मैं लोकविख्यात विशाल उन्नत कुल भी है। में उत्पन्न हुआ हूं', इस प्रकार की अहंकार भावना कुशील-१. जाति कुले गणे या कम्मे सिप्पे तवे के साथ जो मरण को प्राप्त होता है, इसे कुलमान- सुए चैव । सत्तविहं प्राजीयं उवजीवति जो कुशीलो वशार्तमरण कहते हैं।
उ।। (व्यव. ३, पृ. ११७)। २. अष्टादशसहस्रभेदं
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