________________
ध्येय]
५८३, जैन-लक्षणावली
[ध्रुवराहु माणुसछायागारो संतो वि सयलमाणुसपहावृत्तिण्णो ध्रुवप्रत्यय-१. स एवायमहमेव स इति प्रत्ययो अव्वरो अक्खो xxx सगसरूवे दिण्णचित्त- ध्रुवः । (धव. पु. ६, पृ. १५४) । २. स्यान्नित्यजीवाणमसे सपावपणासमो जिणउव इटुणवपयत्था वा त्वविशिष्टस्य स्तम्भादग्रहणं ध्रवः। (प्राचा. सा. ज्झेयं होति । xxx बारसअणुपेक्खायो उब- ४-२६) । समसे ढि-ख वगसेढिचढणविहाणं तेवीसवग्गणाप्रो पंच १ वही यह है, मैं ही वह हं, इस प्रकार का जो परियट्टाणि दिदि-प्रणुभाग-पयडि - पदेसादि सव्वं प्रत्यय होता है वह ध्रवप्रत्यय कहलाता है। २ नित्यपिज्झेयं होदि त्ति स्टूब्वं । (धव. पु. १३, पृ. ६६, त्वविशिष्ट स्तम्भ प्रादि के ग्रहण करने को ध्रुव७०)। २. अथवा पुरुषार्थस्य परां काष्ठामधिष्ठि- प्रत्यय कहते हैं। तः। परमेष्ठी जिनो ध्येयो निष्ठितार्थो निरजन:॥ ध्रवबन्धप्रकृति-जस्स पयडीए पच्चयो जत्थ स हि कममलापायाच्छुद्धिमात्यन्तिकी श्रितः । कत्थ वि जीवे अणादिधुवभावेण लब्भइ सा धुवबंध. सिद्धो निरामयो ध्येयो ध्यातॄणां भावशुद्धये ॥ (म. पयडी। (धव. पु. ८, पृ. १७) । पु. २१, ११२-१३); ध्येयं स्यात् परमं तत्वमवाङ्- जिस कर्म प्रकृति का प्रत्यय जिस किसी भी जीव मानसगोचरम् ।। (म. पु. २१-२२८) । ३. ध्येयम में अनादि व ध्रुवस्वरूप से पाया जाता है वह ध्रुवप्रशस्त-प्रशस्तपरिणामकारणम् । (चा. सा. पृ. बन्धप्रकृति कहलाती है । ७४) । ४. यथावद्वस्तुनो रूपं ध्येयं स्यात् संयम [मे] ध्रुव-बाह्य-सचित्तनोग्रागमद्रव्यस्थान-जं तं सतां ॥ (भावसं. वाम. ६५८)।
धुवं तं सिद्धाणमोगाहणट्ठाणं । कुदो ? तेसिमोगा१ केवल ज्ञानादि रूप अनेक उत्तम गुणों से सम्पन्न हणाए बडिढ-हाणीणमभावेण थिरसरूवेण अवट्ठाबीतराग जिन व उनके द्वारा उपदिष्ट नो पदार्थ णादो । (घव. पु. १०, पृ. ४३४)। ध्येय हैं-ध्यान करने योग्य हैं। इनके अतिरिक्त ध्र वबाह्यसचित्तनोप्रागमद्रव्यस्थान सिद्धों का प्रवबारह अनुप्रेक्षायें, उपशम श्रेणि और क्षपक गाहनास्थान है, क्योंकि उनकी अवगाहना वृद्धिश्रेणि पर प्रारुढ होने की विधि, तेईस वर्गणायें, हानि से रहित होकर स्थिर स्वरूप से अवस्थित है। पांच परिवर्तन और प्रकृति-स्थिति प्रादि बन्धभेद ध्रुवराहु-१. तत्थ णं जे से धुवराहू से गं बहुभी ध्येय (चिन्तनीय) हैं।
लपक्खस्स पाडिवए पण्ण रसइभागेणं भागं चंदस्स ध्रुव-अचित्त-द्रव्यवर्गरणा (जघन्य)-१. ध्रुवन- लेसं पावरेमाणे चिट्ठति तं पढमाए पढमं भाग जावं चित्तदव्ववग्गणा जहण्णा णाम तहाविहपरिणामपरि- पन्नरसमं भागं चरमे समए चंदे रत्ते भवति, णएहिं अचित्तखंधेहिं सव्वकालं अविरहितो लोगो प्रवसेसे समए चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, अण्णे उप्पज्जति अण्णे विगच्छति । (कर्मप्र.च.ब. तमेव सूक्कपक्खे उबदसेमाणे २ चिट्ठति, तं क. १६, पृ. ४२)। २. भ्रवाचित्तद्रव्यवर्गणा नाम पढमाए पढमं भागं जाव [पण्ण र सम भागं, चरमे याः सर्वदैव लोके प्राप्यन्ते । तथा हि-एतासां ___ समए] चंदे विरत्ते भवइ, अबसे से समए चंदे रत्ते मध्येऽन्या उत्पद्यन्तेऽन्या विनश्यन्ति, न पूनरेताभिः विरत्ते य भवइ । (सूर्यप्र. २०-१०५, पृ. २८८)। कदाचनापि विरहितो भवति, अचित्तत्वं चासो २. तत्र यः सदैव चन्द्रविमानस्याधस्तात् सञ्चरति जीवेन कदाचनापि अग्रहणादवसेयम् । (कर्मप्र. स ध्रुबराहुः। (सूर्यप्र. मलय. व. २०-१०५)। मलय. व. ब. क. १६, पृ. ४६)।
ध्र वराह कृष्णपक्ष में प्रतिपदा के दिन चन्द्र के २ जो प्रचित्तद्रव्यवर्गणायें लोक में सदा ही पायी पन्द्रहवें भाग को आच्छादित करता है। इस क्रम जाती हैं वे ध्रुव अचित्त द्रव्यवर्गणायें कहलाती हैं। से वह प्रतिदिन एक एक भाग को प्राच्छादित अभिप्राय यह है कि इन वर्गगानों में अन्य उत्पन्न करता है। इस प्रकार अन्तिम समय (अमावस्या) होती हैं और अन्य विनष्ट होती हैं, परन्तु इनसे में चन्द्र रक्त (पूर्णतया प्राच्छादित) रहता है, शेष लोक कभी रहित नहीं होता। प्रचित्त उन्हें इस दिनों में वह कुछ प्राच्छादित और कुछ प्रगट रहता लिए कहा जाता है कि जीव ने उन्हें कभी ग्रहण है। यही क्रम शुक्ल पक्ष में उसके छोड़ने का नहीं किया।
समझना चाहिए । यही ध्र वराहु कहलाता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org