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________________ तत्त्वार्थाधिगम] ४८१, जैन-लक्षणावली [तत्सेवी स्थितो भावस्तत्त्वेनवार्यमाणकः । तत्त्वार्थः सकलो- -जैसे व्रीहि (एक प्रकार का धान्य) में कणरहित ऽन्यस्तु मिथ्यार्थ इति गम्यते || xxx तेन एत- धान्य का तथा घी में चर्वी को, मिलाकर व्यबहार दुक्तं भवति-यत्त्वेन जीवादित्त्वेनावस्थितःप्रमाण- करना-बेचना, इसे तत्प्रतिरूपकव्यवहार कहते हैं। नयैर्भावस्तेनैवार्यमाणस्तत्त्वार्थः सकलो जीवादिः। यह प्रचौर्याणवत का एक अतिचार है। (त. इलो. १, २, ५)। ४. मानेनार्थ्यत इत्यर्थ- तत्सेवी-१. पासत्थो पासत्थस्स अणुगदो दुक्कड स्तत्त्वं चार्थः स्वरूपतः । (प्राचा. सा. ३-६)। परिकहेइ । एसो वि मज्झसरिसो सम्वत्थ वि १ जो पदार्थ जिस रूप से अवस्थित है उसी रूप से दोससंच इमो॥ जाणादि मज्झ एसो सुहसीलत्तं च निश्चित वह तत्त्वार्थ कहलाता है। सव्वदोसे य। तो एस मे ण दाहिदि पायच्छित्त तत्त्वार्थाधिगम-तत्त्वम् अविपरीतोऽर्थः सुख-दुःख- महल्लित्ति ।। पालोचिदं असेसं सव्वं एदं मए त्ति हेतुः, अधिगम्यते अनेनास्मिन्निति तत्त्वार्थाधिगमः। जाणादि । सो पवयणपडिकुद्धो ट्रो] दस मो आलो(त. भा. हरि. वृ. का. २२, पृ. ११)। चणादोसो ॥ (भ. सा. ६०१-३)। २. अस्यासुख-दुख का कारणभूत यथावस्थित पदार्थ जिसके पराधेन ममातिचारः समानः, तमयमेव वेत्ति, अस्म द्वारा या जिसमें जाना जाता है उसका नाम तत्त्वा- यद्दत्तं तदेव मे युक्तं लघुकर्तव्यमिति स्वदुश्चरितर्थाधिगम है। संवरणं दशमो (चा.-'दशमस्तत्सेवित') दोषः । तत्त्वावबोध-पदार्थस्वरूपपरिज्ञानं तत्त्वावबोधः । (त. वा. ६, २२, २; चा. सा. पृ. ६२)। ३. पर(त. भा. सिद्ध. वृ. ६-३७) । गृहीतस्यैव प्रायश्चित्तस्यानूमतेन स्वदुश्चरितसंवरपदार्थस्वरूप के परिज्ञान का नाम तत्वावबोध है। णम् । (त. श्लो. ६-२२)। ४. तत्सेवी यात्मना तत्परुष-तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः, दोषैः संपूर्णस्तस्य यो महाप्रायश्चित्तभयादात्मीयघवलश्चासौ वृषभश्च विशेषण-विशेष्यबहुल मिति दोष प्रकटयति तस्य तत्सेवी नामा दशम पालोचनातत्पुरुषः । धवलत्वं विशेषणं वृषभेण विशेष्येण सह । दोषो भवेत् । (मूला. व. ११-१५)। ५. मादृशो समस्यति, द्वे पदे एकमर्थं ब्रवते इति समानाधिकर- वेत्त्यसावेव ममागोऽस्म यदर्पितम्। तन्ममेति स्वणत्वम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ७३)। दोषोक्तिरस्मै तत्से वितं मतम् ॥ (प्राचा. सा. ६, समानाधिकरणयुक्त कर्मधारय समास को, जिसमें ३७)। ६.xxx समात्तत्सेवितं त्वसी। (अन. विशेषण-विशेष्य की बहुलता रहती है, तत्पुरुष घ. ७-४३)। ७. शिष्यो यमपराधमालोचयिष्यति समास कहते हैं। जैसे-'धवलवृषभ' यहां धवल तमेव सेवते यो गुरुरसो तत्सेवी । तत्समीपे यदपराविशेषण और वषभ विशेष्य है तथा दोनों पदों का घालोचनमेष ममातिचारेण तल्यस्ततो न किमपि मे एक ही प्रर्थ होने से उनमें सामानाधिकरण भी है। प्रायश्चित्तं दास्यत्यल्पं वा दास्यति । न च मांस तत्प्रतिबद्ध-तत्प्रतिबद्धं च वृक्षस्थगुन्द-पक्वफला- पट यष्यति यथा विरूपं कृतं त्वयेति बुद्धया तदा. दिलक्षणम् । (था. प्र. टी. २८६)। लोचनं तरोत्री एष दशमः (तत्सेवी) आलोचनावक्ष में स्थित गोंद और पके हुए फलादि को दोषः । (व्यव. मलय. वृ. ३४२, पृ. १९)। ८. तत्प्रतिबद्ध कहते हैं। यह पौषधोपवास का एक- यत्पापं गुवं प्रकाशितं तत्सर्वथा न मुंचति पुनरपि अतिचार है। तदेव कुरुते स तत्सेवी कथ्यते । अथवा य प्राचार्यतत्प्रतिरूपकव्यवहार-तथा तत्प्रतिरूपव्यवहर- स्तं दोषं करोति तद ग्रे पापं प्रकाशयति, निर्दोषाणम्-तेनाधिकृतेन प्रतिरूपं सदृशं तत्प्रतिरूपम्, तेन चार्याग्रे पापं न प्रकाशयतीति तत्सेवी दोषः। (भावव्यवहरणं यद्यत्र घटते ब्रीह्यादि-घृतादिषु पलजी- प्रा. टी. ११८)। वसादि, तस्य तत्र प्रक्षेपेण विक्रयः। (श्रा. प्र. टी. २ मेरा अपराथ इसके अपराध के समान ही है, उसे २६८)। यही जानता है, गुरु ने जो प्रायश्चित्त इसे दिया अधिकृत वस्तु के साथ उसके समान किसी अन्य है वही मुझे कर लेना चाहिए। यह सोचकर अपने अल्पमूल्य वाली वस्तु को, जहां जो घटित होती हो दुराचरण को प्रकाशित नहीं करना, यह मालोचना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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