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बासनी]
५०४, जैन-लक्षणावली [त्रिःकृत्वा (तिक्खुत्त) त्रासनी-बद्धमुष्टेर्दक्षिणहस्तस्य प्रसारिततर्जन्या जन्म, जरा और मरणरूप तीन पुरों को ध्यानरूपी वामहस्ततलताडनेन त्रासनी । (निर्वाणक. १६, ६, अग्नि से भस्म करने वाले अरिहंतदेव को त्रिपुरा१८)।
न्तक कहते है। दाहिने हाथ को मुट्ठी बांधकर और तर्जनी को त्रिलोचन-तृतीयज्ञान नेत्रेण त्रैलोक्यं दर्पणायते । पसार कर बाई हथेली पर ताड़ने को त्रासनी मुद्रा यस्यानवद्यचेष्टायां स त्रिलोचन उच्यते ।। (प्राप्तकहते हैं।
स्व. २८)। त्रिक-त्रिकोणं स्थानं त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति। केवलज्ञानरूप ततीय नेत्र से तीन लोकों के जानने (जीवाजी. मलय. व. २-१४२, पृ. २५८)। देखने वाले अरिहन्तों को त्रिलोचन कहते हैं। जिस स्थान पर तीन ओर से मार्ग आकर मिलते हैं
त्रिवलित-१. त्रिवलितं शरीरस्य त्रिषु कटिउसे त्रिक कहते हैं।
हृदय-ग्रीवाप्रदेशेष मंगं कृत्वा ललाटदेशे वा त्रिवलि त्रिकावनत (तियोरगद)-प्रोणदं अवनमनम्,
कृत्वा यो विदधाति वन्दनां तस्य त्रिवलितदोषः । भूमावासनमित्यर्थः। तं च तिणि वारं कीरदे त्ति
(मूला. वृ.७-१०८)। २. त्रिवलितं कटि-ग्रीवातियोणदमिदि भणिदं। तं जहा-सुद्धमणो धोदपादो
हृद्भगो भ्रकुटिर्नवा ।। (अन. ध. ८-१०६)। जिणिददसणजणिदहरिसेण पूल इदंगो संतो जं जिण
१कटि, हृदय और ग्रीवा को भंग कर (शकाकर) स्स अग्गे वइसदि तमेगोणदं। जमुट्रिऊण जिणिदा
अथवा ललाट पर त्रिवली पाड़ करके प्राचार्यादि दीणं विणत्ति कादण वइसणं तं विदियमोणदं ।।
की वन्दना करने को त्रिवलित दोष कहते हैं। पुणो उट्रिय सामाइयदंडएण अप्पद्धि काऊण सकसायदेहस्सग्गं करिय जिणाणंतगूणे ज्झाइय चउवीस
त्रिशिखमुद्रा-संमुखहस्ताम्यां वेणीवन्धं विधाय तित्थराणं वंदणं काऊण पुणो जिण-जिणालय-गुर
मध्यमाङ्गुष्ठ कनिष्ठिकानां परस्परयोजनेन त्रिशिख
मुद्रा। (निर्वाणक. १६, ६, १०)। वाणं संथवं काऊण जं भूमीए वइसणं तं तदियमोण
सामने की ओर दोनों हाथों को जोड़कर मध्यमा, दं । एवं एक्केक्कम्हि किरियाकम्मे कीरमाणे तिण्णि चेव प्रोणमणाणि होति । (धव. पु. १३, पृ. ८९)।
अंगष्ठ और कनिष्ठिका अंगलियों के परस्पर जोड़ने 'प्रोणव' का अर्थ अवनमन अर्थात् भूमि में बैठना
को त्रिशिखमुद्रा कहते हैं। है, वह चूंकि तीन बार किया जाता है, अत: उसे
त्रिस्थानबन्धक-एत्थ असादाणु भागो पुव्वं व सेतिम्रोणद–त्रिकावनत-कहा जाता है। यथा- डिआगारेण ठइदूण चत्तारिभागेसु कदेसु तत्थ पढमपादप्रक्षालनपूर्वक शद्ध मन से जिनेन्द्र के दर्शन
भागो णिबसभो एगदाणं, विदियभागो कंजीरसमो करके हर्ष से रोमांचित होता हया जो जिनदेव के विदियट्ठाण, तदियभागो विससमो तदियआगे बैठता है. यह एक अवनमन है। फिर उठ ढाणं । तत्थ तिण्णि ठाणाणि जम्हि अणभागकरके जिनेन्द्र प्रादि की विज्ञप्ति करके बैठना,
बंधे सो तिढाणो णाम, तस्स बंधया जीवा तिट्ठाणयह दूसरा अवनमन है। पश्चात् उठ करके सामा- बंधा ।(धव. पु. ११, पृ. ३१२-१४) । यिकदण्डक से प्रात्मशद्धि करके कषाय के साथ असातावेदनीय के अनुभाग को श्रेणिके आकार से शरीर से ममत्व छोड़ता हा जिनेन्द्रों के अनन्त
स्थापित कर चार भाग करने पर प्रथम स्थान गणों का ध्यान करता है, फिर चौबीस तीर्थकरों नीम के समान, दूसरा कांजीर के समान, तीसरा की वन्दना करके पश्चात् जिन, जिनालय व गरु विष के समान और चौथा हलाहल के समान है। की स्तुति करता हा जो भूमि में बैठता है। यह इन चार स्थानों में से तीन स्थान जिस अनभागतीसरा अवनमन है। इस प्रकार एक-एक क्रिया- बन्ध में होते हैं वह त्रिस्थानबन्ध और उसके बन्धक कर्म करते हुए तीन अवनमन होते हैं।
त्रिस्थानबन्धक कहलाते हैं । त्रिपुरान्तक -जन्म-मृत्यु-जराख्यानि पुराणि ध्या- त्रिःकृत्वा (तिक्खुत्त) - पदाहिण-णमंसणादिन-बह्निना । दग्धानि येन देवेन तं नौमि त्रिपू. किरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खत्तं णाम । अधवा रान्तकम् ॥ (प्राप्तस्व. २५)।
एकम्हि चेव दिवसे जिण-गुरु-रिसिवंदणामो तिण्णि
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