________________
.
.
कल्पवृक्ष ३२७, जैन-लक्षणावली
[कल्पोपपन्न २ शब्द सम्बन्ध के योग्य प्रतिभास से युक्त प्रती- अहमिन्द्र-इन्द्रादि की कल्पना से रहित हैं। तिका नाम कल्पना है।
कल्पिका-१. या कुशलेन-ज्ञानादिरूपेणकल्पवृक्ष-देखो कल्पद्रुम ।
परिणामेन बाह्यवस्तुप्रतिसेवना सा कल्पः, पदैकदेशे कल्पव्यवहार देखो कल्प्यव्यवहार । यतीनां पदसमुदायोपचारात । कल्प्यः प्रतिषेवणा कल्पिका योग्यसेवनसूचकमयोग्यसेवनप्रायश्चित्तकथकं कल्प- इति भावः । (व्यव. मलय, वृ. १-३६, पृ. १६)। व्यवहारम् । (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)।
२. या पुनः कारण क्रियते सा कल्पिका । (व्यव. जो शास्त्र मनि जनों के लिए योग्य वस्तुओं के सेवन मलय. व. २३८, पृ. १४)। और अयोग्य का सेवन होने पर उसके लिए ज्ञानादिरूप कुशल परिणाम के साथ जो बाह्य वस्तु प्रायश्चित्त का निरूपक है उसका नाम कल्प- का सेवन किया जाता है, इसे कल्पिका कहते हैं। व्यवहार है।
कल्पित-१. कप्पियं नाम जं जस्स असंतेण भावेण कल्पाकल्प-देखो कल्प्याकल्प्य । कालमाश्रित्य दिट्टतो कज्जइ। एत्थ गाहा-जह अम्हे तह तुम्हे यनि-श्रावकाणां योग्यायोग्यनिरूपकं कल्पाकल्पम् । तुभेबि य होहिहा जहा अम्हे। अप्पाहेइ पडतं (त. वृत्ति श्रुत. १-२०)।
पंडुअपत्तं किसलयाणां ॥ एयं कप्पियं । (दशव.च. जो शास्त्र काल के प्राश्रय से मुनि और श्रावकों के पृ ४०)। २. कल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितके लिए योग्य-अयोग्य वस्तुओं की प्ररूपणा करता मुच्यते । (दशवै. हरि. बृ. १-५३, पृ. ३४) । है वह कल्पाकल्प कहलाता है।
जिस वस्तु का वस्तुतः सद्भाव न हो, किन्तु किसी कल्पातीत-१. कल्पानतीताः कल्पातीता:। (स. को समझाने के लिए दृष्टान्त के रूप में कल्पना सि. ४-१७; त. वा. ४-१७)। २. नवप्रैवेयका की गई हो, उसे कल्पित कहते हैं। जैसे-वृक्ष से नवानुदिशा: पञ्चानुत्त राश्च कल्पातीताः, कल्पा- गिरते हुए जीर्ण धवल पत्र नवजात कोमल पत्तों तीतनामकर्मोदये सति कल्पातीतत्वात् तेषामिन्द्रादि- को सन्देश देते हैं कि जैसे हम हैं वैसे तुम भी होदशतयकल्पनाविरहात् सर्वेषामहमिन्द्रत्वात् । (त. तुम भी हमारे समान जीर्ण होकर गिरने वाले हो। श्लो. ४-१७)। ३. विमानोपपन्नका: ग्रेवेयकानुत्तर- (पत्ते आपस में बातचीत नहीं कर सकते, फिर भी लक्षणविमानोत्पन्ना:, कल्पातीता इत्यर्थः । (स्थाना. अभिमान के निराकरणार्थ किसी को उनका कल्पित अभय. वृ. २, १, ७७)। ४. कल्प याचारः, कल्पम- दृष्टान्त दिया गया है।) तीता: अतिक्रान्ताः कल्पातीताः अधस्तनाधस्तन- कल्पोपग-देखो कल्पोपन्न । अवेयका दिनिवासिनः, ते हि सर्वेऽप्यहमिन्द्राः, ततो कल्पोपपन्न-१. कल्पेषुपपन्ना: कल्पोपपन्नाः। भवन्ति कल्पातीताः। (प्रज्ञाप, मलय. व. १-३८, (स. सि. ४-१७)। २. कल्पेषपपन्ना। Xxx पृ. ७०)। ५. तथा यथोक्तरूपात् कल्पादतीता उक्तमेतत्-- इन्द्रादिदशतया कल्पनासद्भावात् कल्पा अपेता: कल्पातीताः । (बृहत्सं. व. २)। ६. कल्पे- इति । (त. बा. ४-१७) । ३. कल्पोपपन्ना इन्द्रादिभ्योऽतीता: अतिक्रान्ताः उपरितनक्षेत्रवतिन: नव- दशतयकल्पनासद्भावात् कल्पोपपन्ननामकर्मोदयवशग्रैवेयकदेवा नवानुदिशामताशनाश्च पंचानुत्तरनिवा- वर्तित्वाच्च । (त. श्लो. ४-१७)। ४. इन्द्रादिदशसिनो निर्जराश्च विप्रकारा अपि अहमिन्द्राः कल्पा- तया कल्पनात् कल्पा: सौधर्मादयोऽच्युतान्ताः, तेषूतीताः कथ्यन्ते । (त. वृत्ति श्रुत. ४-१७)। पपन्ना: कल्पोपपन्ना:। (त. भा. सिद्ध. व.४-१८)। १ जो कल्पों से प्रतीत हैं-इन्द्र-सामानिक प्रादि ५. कल्पोपपन्नका: सौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नाः । दस भेदों की कल्पना से रहित हैं-वे कल्पातीत (स्थानां. अभय. वृ. २, १, ७७)। ६. कल्पः कहलाते हैं। ४ कल्प नाम प्राचार (व्यवहार) का प्राचारः, स चेह इन्द्र सामानिक-त्रायस्त्रिशादिहै । उस कल्प से जो रहित हैं वे कल्पातीत कहलाते व्यवहाररूपः, तमुपगा: प्राप्ताः कल्पोपगा: सौधर्महैं । अभिप्राय यह है कि अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक शानादिदेवलोकनिवासिनः । (प्रज्ञाप. मलय. व. से लेकर अनुत्तर विमानों तक के देव कल्पातीत १-३८, पृ. ७०)। ७. तत्र कल्प: स्थितिविशेष माने गये हैं। इसका कारण यह है कि वे सब उच्यते "कल्पः स्थिति त मदित्यनन्ति रमिति"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org