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पेलविया ७२८, जैन-लक्षणावली
[पोत्तकर्म समश्रेणी से अवस्थित घरों में भिक्षा के लिए परि- नाम पैशून्य है। २ गुप्तरूप से किसी के विद्यमान भ्रमण करता है उसे पेटा गोचरभूमि कहते हैं। या अविद्यमान दोषों के प्रगट करुने को पिशुनकर्म यह पाठ गोचरभूमियों में पांचवीं है।
या पैशून्य कहा जाता है। पेलविय---देखो पेटा। १. पेलविगं वंशदलादिभि- पोत--१. किञ्चित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो निष्पादितं वस्त्र-सुवर्णादिनिक्षेपणार्थ पिधानसहितं योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः पोतः । यत्तद्वच्चतुरस्राकारं भ्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. (स. सि. २-३३; गो. जी. जी. प्र. ८४) । २१८) । २. पेलवियं पेट्टावच्चतुरस्रं भ्रमणम् । (भ. २. सम्पूर्णाधयवः परिस्पन्दादिसामोपलक्षितः प्रा. मूला. २१८)।
पोतः । किञ्चित्परिवरणमन्तरेण परिपूर्णावयवो १ वस्त्र व सुवर्णादि के रखने के लिए बांस की योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेत: पोत कमचियों या बेत आदि से निमित और ढक्कन इत्युच्यते । (त. वा. २, ३३, ३)। ३. पूर्णावयवः सहित पेटी के समान चारों ओर गोचरी (भिक्षा) परिस्पन्दादिसामोपलक्षितः पोतः। (त. श्लो. २, के लिए भ्रमण करना, यह पेलविय या पेलविक ३३)। ४. अण्डज-जरायुजवजिताः संजातमात्रव्यगोचरी कहलाती है। इत्यादि प्रकार का नियम क्तांगोपेताः पोताः । (गो. जी. म. प्र. ८४)। ५. यद् वत्तिपरिसंख्यान तप में किया जाता है।
योनिनिर्गतमात्र एव परिस्पन्दादिसामोपेतः परिपैशाचविवाह-१. सुप्त-प्रमत्तकन्यादानात् पैशाचः ।
पूर्णप्रतीकः प्रावरणहितः स पोतः इत्युच्यते । (त. (नीतिवा. ३१-११; ध. बि. म. व. २-१२) वृत्ति श्रुत. २-३३)। २. सुप्त-प्रमत्तकन्याग्रहणात् पैशाचः। (योगशा. १ जो बिना किसी प्रकार के प्रावरण के ही परिस्वो. विव.१-४७, श्राद्धगु.३, प.१४; धर्मसं.
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पूण
पूर्ण शरीरावयवों से युक्त होता हा योनि से मान. स्वो. टी. १, पृ. ५)।
निकलते ही-जन्म लेते ही-चलने-फिरने मादिसोई हुई या प्रमादयुक्त (असावधान या पागल) कन्या
रूप क्रिया में समर्थ होता है, उसे पोत कहते हैं। के ग्रहण करने को पैशाचविवाह कहा जाता है। पोतायिक-मार्जारादिगर्भविशेषः पोतः, तत्र कर्मपैशून्य-१. पृष्ठतो दोषाविष्करणं पेशन्यम् । (त. विशेषादुत्पत्त्यर्थमाय आगमनं पोतायः । पोतायो विवा. १, २०, १२, पृ. ७५) । २. पैशन्यं पिशनकर्म द्यते येषां ते पोतायिकाः । xxx श्व-मार्जारप्रच्छन्नं सदसद्दोषाविर्भावनम् । (स्थाना. अभय. व.
सिंह-व्याघ्र-चित्रकादयोऽनावरणजन्मानः । (त. वृत्ति १-४८) । ३. पैशुन्यं प्रच्छन्नं सहोषाविष्करणम । श्रुत. २-१०)। (प्रोपपा. अभय. वृ. ३४, पृ. ७६)। ४. पैशन्यं पोत का अर्थ गर्भ और प्राय का अर्थ है प्रागमन, परस्यादोषस्य वा सदोषस्य बा दोषोदभावनं पृष्ठ- इस प्रकार जो उत्पत्ति के लिए गर्भ में आते हैं वे मांसभक्षित्वम् । (मूला. वृ. ११-६) । ५. पैशन्यम पोतायिक कहलाते हैं। अङ्गविकार-भ्रूविक्षेपादिभिः पराभिप्रायं ज्ञात्वा असू- पोत्तकर्म-पोत्तं वस्त्रम्, तेण कदाप्रो पडिमानो यादिना तत्प्रकटनम्, साकारमंत्रभेद इत्यर्थः । (रत्न- पोत्तकम्मं । (धव. पु. ६, पृ. २४६); हय-हत्थि-णरक. टी. ३-१०)। ६. कर्णजपमुख विनिर्गतं नृपति- णारि-वय-वग्धादिपडिमानो वत्थविसेसेसु उद्दामो कर्णाभ्यर्णमति चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य पोत्तकम्माणि णाम। (धव. पु. १३, पृ. ६); विविवा महद्विषत्कारणं वचः पैशून्यम् । (नि. सा. वृ. हवत्थेसु कयपडिमानो पोत्तकम्माणि णाम । (धव. ६२)। ७. पैशुन्यं परोक्षे सतोऽसतो वा दोषस्योद- पु. १३, पृ. २०२); वत्थेसु पाण-सालिय-कोसद्दाघाटनम् । (प्रज्ञाप. मलय. व. २८०, पृ. ४३८)। दीहिं जाणि वणणकिरियाए णिप्पाइदाणि रूवाणि ८. पितृदो दोससूयणं पेसुण्णवाया। (अंगप. २-७८)। छिपएहि वा कदाणि पोत्तकम्माणि णाम । (धव. पु.
६. पैशून्यं प्रच्छन्नं परदोषप्रकटनम् । (कल्पसू. विन. १४, पृ. ५)। . वृ. ११८, पृ. १७४) ।
पोत्त का अर्थ वस्त्र है, उसके ऊपर जो घोड़ा व . १ पीछे किसी के दोषों को प्रकट करना, दसका हाथी प्रादि की प्रतिमानों की रचना की जाती है
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