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पृथिवीकाय ]
श्रचेतन और कठिन भूमि है वह पृथिवी कहलाती है। पृथिवीकाय - १. कायः शरीरम्, पृथिवीकाय जीवपरित्यक्तः पृथिवीकाय: । ( स. सि. २ – १३; त. वा. २ -१३) । २. इष्टकादिः पृथिवीकायः, पृथिवीकायिकजीवपरिहृतत्वात् इष्टकादिः पृथिवीकायः कथ्यते मृतमनुष्यादिकायवत् । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ काय का अर्थ शरीर है, पृथिवीकायिक जीव के द्वारा जो शरीर छोड़ा जा चुका है उसे पृथिवीकाय कहा जाता है । पृथिवीकायिक- १. कायाणुवादेण पुढविकाइयो णाम कवं भवदि ? पुढविकाइयणामाए उदएण । ( षट्खं. २, ९, १८-१६-धव. पु. ७, पृ. ७० ) । २. पृथिवी कायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिकः । ( स. सि. २- १३; त. वा. २ - १३ ) । ३. सैव (पृथिवी एव) कायः शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः, पृथिवी काया एव पृथिवीकायिकाः । स्वार्थिकष्ठक् । (दशवै सू. हरि वृ. ४- १, पृ. १३८ ) । ४. पुढविकाइयणामकम्मोदयवंतो जीवा पुढविकाइया त्ति वुच्चति । ( धव. पु. ३, पृ. ३३० ) । ५. पृथिवी कायो विद्य यस्य स पृथिवीकायिकः । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) । १ जो जीव पृथिवीकायिक नामकर्म के उदय से युक्त होते हुए पृथिवी को शरीररूप से ग्रहण किये हुए हैं वे पृथिवीकायिक कहलाते हैं । पृथिवीजीव १. समवाप्तपृथिवीनामकर्मोदयः Sarfaraथ यो न तावत् पृथिवीं कायत्वेन गृह्णाति सः पृथिवीजीवः । ( स. सि. २ - १३ ; त. वा. २ -१३) । २. पृथिवीं कायत्वेन यो गृहीष्यति प्राप्त पृथिवीनामकर्मोदयः कार्मणकाययोगस्थः स पृथिवीजीव: । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ जो जीव पृथिवीकाय नामकर्म के उदय से युक्त होकर कार्मण काययोग में स्थित होता हुआ - विग्रह - गति में वर्तमान होता हुआ - पृथिवी को शरीररूप से ग्रहण नहीं करता है— श्रागे ग्रहण करने वाला है -- उसे पृथिवीजीव कहते हैं । पृथिवीमण्डल - देखो भौममण्डल | क्षितिबीजसमाक्रान्तं द्रुतमसमप्रभम् । स्याद्वज्चलाञ्छनोपेतं चतुरस्रं धरापुरम् ॥ ( ज्ञानार्णव २६-१६, पृ. २८८ ) । जो पृथिवी बीजाक्षर से युक्त होकर पिघले ( सन्तप्त)
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७२७, जैन-लक्षणावली
[पेटा
सुवर्ण के समान कान्तिवाखा, वज्रचिह्न से संयुक्त और आकार में चौकोण होता है वह धरापुर या पृथिवीमण्डल कहलाता । पृथिवीराजिसदृश क्रोध - देखो भूमिराजिसदृश
क्रोध ।
पृथ्वी–देखो पृथिवी । वर्णाश्रमवती धान्य हिरण्यपशु-कुप्य वृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी । ( नीतिवा. ५-५) ।
जो ब्राह्मणादि वर्णों एवं ब्रह्मचारी आदि श्राश्रमों से युक्त होती हुई धान्य (अन्न), हिरण्य ( सुवर्ण श्रादि), पशु और कुप्य- सुवर्ण-चांदी भिन्न; इनका वर्षण करती हैं— उन्हें प्रदान करती हैवह पृथ्वी कहलाती है । इसका पालन राजा किया
करता '
पृथ्वीतत्त्व - प्रविरलमरीचिमञ्जरीपुञ्जपिञ्जरितभासुरतरशिरोमणिमण्डली सहस्रमण्डित विकटतरफूत्कारमारुतपरम्परोत्पातप्रेङ्खोलितकुलाचलसम्मिलितशिखि शिखा सन्तापद्रवत्काञ्चनकान्तिकपिश निजकायकान्तिच्छटापटल टिलितदिग्वलयक्षत्रिय भुजंगपुंगव - द्वितयपरिक्षिप्त क्षितिबीज विसृष्टप्रकटपविपञ्जरपिनसवनगिरिचतुरस्र मेदिनीमण्डलावलम्बनगजपतिपृष्ठप्रतिष्ठित परिकलितकुलिशकरशचीप्रमुख विलासिनीशृंगारदर्शनोल्लसितलोचनसहस्रश्रीत्रिदशपतिमुद्रालंकृतसमस्तभुवनावलम्बिसुनासीरपरिकलितजानुद्वय इति पृथ्वीतत्त्वम् । (ज्ञानार्णव २१ - १०, पृ. २२३) । देखो पृथिवीमण्डल |
पृष्ठतः अन्तगत अवधि - येनावधिना पृष्ठत एव संख्येयान्यसंख्येयानि वा योजनानि पश्यति स पृष्ठतोऽन्तगतः । ( प्रज्ञाप. मलय. वृ. ३१७, पृ. ५३७) । जिस अवधिज्ञान के द्वारा पीछे की ओर ही संख्यात या प्रसंख्यात योजन पर अवस्थित पदार्थों को देखता है उसे पृष्ठतः श्रन्तगत अवधि कहते हैं । पेटा - १. अत्र च सम्प्रदाय : – पेडा पेडिका इव चउकोणा । (उत्तरा. ने. वृ. ३० - १९ ) । २. यस्यां तु साधुः क्षेत्रं पेटावत् चतुरस्रं विभज्य मध्यवर्तीनि च गृहाणि मुक्त्वा चतसृष्वपि दिक्षु समश्रेण्या भिक्षामति सा पेटा । (बृहत्क. क्षे. वृ. १६४९ ) । २ जिस गोचर भूमि में साधु पेटा (पेटी) के समान गोचरक्षेत्र को चौकोण श्राकार में विभाजित करके मध्यवर्ती गृहों को छोड़कर चारों ही दिशाओं में
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