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पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्ल.]
गहने वीचार एषो भवेत्, ध्यानं सार्थकनामधाम तदिदं स्यादिष्टसंपत्प्रदम् ।। ( श्राचा. सा. १०-४८ ) । १६. द्रव्यात् पर्यायार्थे पर्यायाच्च द्रव्यार्थे संक्रमणं अर्थसंक्रान्तिः कुतश्चिच्छू तवचनाच्छब्दान्तरे संक्रमणं व्यञ्जनसंक्रान्तिः, कायवर्गणाजनितकायपरिस्पन्दाद्योगान्तरे स्ववर्गणाजनितपरिस्पन्दाख्याद्योगान्तरात् काययोगे संक्रमणं योगसंक्रान्तिः सविचार इत्याख्यायते, विविधचरणस्य विचारत्वात् । तदनेन प्रथमशुक्लध्यानं पृथक्त्ववितर्क मुक्तं मबति । दव्य पर्याययोः पृथक्त्वेन भेदेन वितर्को विचारश्चास्मिन्निति व्याख्यानात् सविचारं तदिति संप्रतिपत्तेः । XX X तत्र ध्याता तत्त्वार्थज्ञः कृतगुप्त्यादिपरिकर्माऽऽविर्भूतवितर्कसामर्थ्यः पृथक्त्वेनार्थ - व्यञ्जन - योग संक्रमणात् संयतमना मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयन् वा ध्येये द्रव्यपरमाणौ। भावपरमाणौ वा पृथक्त्ववितर्क विचारं ध्यानमारभते (त. सुखबो. वृ. ६-४४ ) । २०. गुप्त्यादिषु कृतपरिकर्मा विहिताभ्यासः सन् परद्रव्यपरमाणुं द्रव्यस्य सूक्ष्मत्वं भावपरमाणुं पर्यायस्य सूक्ष्मत्वं वा ध्यायन् सन् समारोपितवितर्क सामर्थ्यः सन्नर्थ-व्यञ्जने काय - वचसी च पृथक्त्वेन संक्रमता मनसा श्रसमर्थ शिशूद्यमवत् प्रौढाभकवदव्यवस्थितेन प्रतीक्ष्णेन कुठारादिना शस्त्रेण चिराद् वृक्षं छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयंश्च मुनिः पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानं भजते । (त. वृत्ति श्रुत. ६-४४ ) । २१. उत्पादादिपर्यायाणामेकद्रव्यविवर्तिनाम् । विस्तारेण पृथग्भेदैवितर्को यद्विकल्पनम् ।। नानानयानुसरणात्मकात्पूर्वगतश्रुतात् । तत्र ध्याने तत्पृथक्त्ववितर्कमिति वर्णितम् ॥ ग्रत्र च व्यञ्जनादर्थे तथार्थाद् व्यञ्जनेऽसकृत् । विचारोऽस्ति विचरणं सविचारं तदीरितम् ॥ मनःप्रभृतियोगानामेकस्मादपरत्र च । विचारोऽस्ति विचरणं सविचारं ततोऽप्यदः । एवं च यत् पृथक्त्ववितर्कायं सविचारं भवेदिह । तत् स्यादुभयधर्माढ्यं शुक्लध्यानं किलादिमम् ॥ ( लोकप्र. ३०, ४८०-८४, पृ. ४४२)।
१ पृथक्त्व वितर्क - वीचार शुक्लध्यान का ध्याता उपशान्तमोह – ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती संयत — अनेक द्रव्यों का तीनों ही योगों के श्राश्रय से ध्यान करता है । इसीलिए इस ध्यान का उल्लेख पृथक्त्व शब्द के द्वारा किया जाता है। वह चूंकि पूर्वगत श्रुत के शर्थ में कुशल - पूर्वो का ज्ञाता श्रुतकेवली — होता
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[ पृथिवी
है, इसलिए श्रुत का बोधक होने से उस ध्यान को सवितर्क शब्द से कहा जाता है । तथा वह ध्यान अर्थ, व्यञ्जन और योगों के परस्पर परिवर्तनरूप वीचार से सहित होता है, इसी से उसे सविचार भी कहा गया है । ३ तीनों योगों में प्रवृत्त होना, इसका नाम पृथक्त्व है, अथवा पृथक्त्व नाम विस्तार का जानना चाहिए, इस ध्यान का ध्याता श्रुतज्ञान में उपयुक्त होता हुआ अनेक पर्यायों के श्राश्रय से ध्यान करता है; यह पृथक्त्व का अभिप्राय समझना चाहिए । वितर्क का अर्थ श्रुत और वीचार का अर्थ है अर्थ, व्यञ्जन ( श्रुतवाक्य) एवं योगों का संक्रमण । इसका ध्याता श्रुतज्ञान में उपयुक्त चतुर्दशपूर्ववित् होता इससे उसे सवितर्क कहा गया है । वह एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक व्यञ्जन से दूसरे व्यञ्जन को, तथा एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होता है; इसीलिए उसे अर्थ, व्यञ्जन योगों के संक्रमणरूप वीचार से सहित होने के कारण सविवार कहा गया है। इस प्रकार से उक्त ध्यान पृथक्त्व वितर्क - सविचारी कहलाता है। पृथग्विमात्रा- पृथग्विमात्रा हास्येन प्रारब्धाः प्रद्वेषेण निष्ठाङ्गता । ( जीतक. चू. वि. व्या. ५-२१, पृ. ३६) ।
जो उपसर्ग हास्य से प्रारब्ध होकर द्वेष से समाप्त होते हैं वे पृथग्विमात्रा कहलाते हैं । पृथिवी - १. पुढवी चित्त मंतमखाया ग्रणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणएणं । ( दशवै. सू. ४- १, पृ. १३६ ) । २. तत्र प्रचेतना वैश्रसिकपरिणामनिर्वृत्ता काठिन्य (त. वा. 'काठिन्यादि'-) गुणात्मिका पृथिवी । ( स. सि. २- १३; त. वा. २, १३, १) । ३. पृथिवी काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता । ( दशवं. सू. हरि. वृ. ४- १, पृ. १३८ ) । ४. तत्राध्वादिस्थिता धूलिः पृथिवी । (त. वृत्ति श्रुत. २ - १३ ) ।
१ अपना अपना पृथक् अस्तित्व रखने वाले अनेक जीवों से युक्त पृथिवी चित्तवती — चेतना से युक्त ( सजीव ), अथवा चित्तमात्रा — श्रल्पचेतना वाली - कही गई है । विशेष इतना जानना चाहिए कि शस्त्रपरिणत पृथिवी चित्तवती ( सजीव) नहीं है । शस्त्र द्रव्यशस्त्र आदि (जैसे-शस्त्र, अग्नि, विष, क्षार और नमक आदि ) के भेदसे अनेक प्रकार का है । २ स्वाभाविक परिणाम से निर्मित जो
७२६, जैन-लक्षणावली
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