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परव्यपदेश]
६७१, जैन-लक्षणावली
[परसंग्रह
परव्यपदेशः। अथवा परस्येदं भक्ताद्यासं देयम्, न भावस्वरूप्यत्वादनियतगुणपर्यायत्वं परसमयः, परचमया इदमीदृशं वा देयमिति परव्यपदेशः। (त. रितमिति याबत् । (पंचा. का. अमृत. व. १५५) । वृत्ति श्रुत. ७-३६) । ८. प्रास्माकीनं सुसिद्धान्नं त्वं १जीव यद्यपि ज्ञान-दर्शनरूप स्वभाव में नियत प्रयच्छेति योजनम् । दोषः परोपदेशस्य करणाख्यो है--अवस्थित है, फिर भी मोहनीय के उदय से व्रतात्मनः ।। (लाटीसं. ६-२२६)।
विभाव में उपयोगयुक्त होकर प्राप्त परस्वरूप होने १ अन्य दाता की देय वस्तु का देना, इसका नाम से जो अनियत गण-पर्यायों-कर्मजनित रागादिपरव्यपदेश है। २ दाता दूसरे स्थान पर हैं, दी भावों को अपना मानता है, इसी का नाम परजाने वाली यह भोज्य वस्तु भी अन्य की है, इस समय है । प्रकार कहते हुए देना; यह परव्यपदेश नाम का परसमयरत-१. अण्णाणादो णाणी जदि मण्णदि अतिथिसंविभागवत का अतिचार है। ३ पौषधोप- सुद्धसंपयोगादो । हवदि त्ति दुक्ख मोक्खं परसमयरदो वास की पारणा के समय भिक्षा के निमित्त उप- हवदि जीवो ॥ (पंचा. का. १६५) । २. अर्हदास्थित हुए साधु को, जो प्रत्यक्ष में अन्न आदि को दिषु भगवत्सु सिद्धिसाधनीभूतेषु भक्तिबलानुरञ्जिता देख रहा है, श्रावक जो यह कहता है कि यह वस्तु चित्तवृत्तिरत्र शुद्धसम्प्रयोगः । अथ खल्वज्ञानलवादूसरे की है, मेरी नहीं है। इसलिए नहीं देता हूं। वेशाद्यदि यावज्ज्ञानवानपि ततः शुद्धसम्प्रयोगान्मोक्षो अथवा कुछ याचना करने पर यह कहता है कि यह भवतीत्यभिप्रायेण खिद्यमानस्तत्र प्रवर्तते तदा तावत् अमुक की वस्तु है, अतएव पाप वहां जाकर सोऽपि रागलवसद्भावात् परसमयरत इत्युपगीयते । खोजिए, यह परव्यपदेश नाम से प्रसिद्ध अतिथि- अथ न कि पुनर्निरङ्कुशरागकलिकलङ्कितान्तरङ्गसंविभागवत का अतिचार है।
वत्तिरितरो जन इति । (पञ्चा. का. प्रमत. व. परशरीरसंवेजनी कथा-एवं परसरीरसंवेयणी १६५)। वि-परसरीरं एरिसं चेव असुई, अहवा परस्स सरीरं १ज्ञानी होकर भी जो किंचित् अज्ञान के वश जब वण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमप्पाएइ। (दशव.नि. तक यह मानता है कि शुद्ध सम्प्रयोग से—प्ररहन्त हरि. वृ. १६९, पृ. ११२) ।
आदि में भक्तिवश अनुरागयुक्त हुए चित्त के व्यापार दूसरे का शरीर ऐसा ही (अपने शरीर समान ही) से-दुःख से छुटकारा (मुक्ति) होता है, तब तक अपवित्र है, अथवा पर के शरीर का वर्णन करने अज्ञान का लेश बना रहने से उसे परसमयरत वाला उपदेशक चूंकि श्रोता के संवेग को उत्पन्न जानना चाहिए। करता है, इसलिए इस प्रकार की चर्चा को पर- परसमयवक्तव्यता-परसमयो मिच्छत्तं जम्हि शरीरसंवेजनी कथा कहते हैं।।
पाहुडे अणियोगे वा वणिज्जदि परूविज्जदि पण्णापरशुमुद्रा-पताकावत् हस्तं प्रसार्य अगुष्ठयोज- विज्जदि तं पाहुडमणियोगो वा परसमयवत्तव्वं, तस्स नेन परशुमुद्रा। यद्वा पताकाकारं दक्षिणकरं संहता- भावो परसमयवत्तव्वदा णाम । (धव. पु. १, पृ.
गुलिं कृत्वा तर्जन्यङ्गुष्ठाक्रमणेन परशुमुद्रा द्वितीया। ८२)। (निर्वाणक. पृ. ३२)।
परसमय का अर्थ मिथ्यात्व है, जिस प्राभूत अथवा पताका (ध्वजा) के समान दाहिने हाथ को पसार अनुयोग में उक्त परसमय का वर्णन या प्रज्ञापन कर तर्जनी से अंगूठे के मिलाने को परशुमुद्रा किया जाता है उस प्राभूत या अनुयोग का नाम कहते हैं।
परसमयवक्तव्य है, उसके भाव को परसमयवक्तपरसमय-१. जीवो सहावणियदो अणियदगुण- व्यता कहा जाता है। पज्जोध परसमग्रो । (पंचा. का. १५५)। परसंग्रह-अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्ध२. पुग्गलकम्मुवदेस दिदं च तं जाण परसमयं । द्रव्यं सन्मात्रभिमन्यमानः परसंग्रहः । (प्र. न. त. (समयप्रा. २)। ३. संसारिणो हि जीवस्य ज्ञान- ७-१५; स्यावादम. ३१७, नयप्र., पृ. १०२, दर्शनावस्थितत्वात् स्वभावनियतस्याप्यनादिमोहनी- जनप्त., पृ. १२७)। योदयानुवृत्तिरूपत्वेनोपरक्तोपयोगस्य सतः समपात्त- समस्त विशेषोंमें उदासीनता को स्वीकार करता हमा
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