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निर्ग्रन्थ ]
६१८,
E - ४९ ) । १०. देहो बाहिरगंथो प्रण्णो श्रवखाण विसयग्रहिलासो । तेसि चाए खवप्रो परमत्थे हवइ fi || (रा. सा. ३३) । ११. बहिरब्भंतरगंथा मुक्का जेणेह तिविह्जोएण । सो णिग्गंथो भणिनो जिणलिंग समासिश्रो सवणो ॥ (त. सा. १० ) । १२. यथोदके दण्डराजिराश्वेव विलयमुपयाति तथा नभिव्यक्तोदयकर्माण ऊर्ध्वं मुहर्तादुद्भिद्यमानकेवलज्ञान दर्शनभाजो निर्ग्रन्था: । (चा. सा पृ. ४५) । १३. संसार- द्रुममूलेन किमनेन ममेति यः । नि.शेष त्यजति ग्रन्थं निर्ग्रन्थं तं विदुर्जनाः ॥ ( सुभा. सं. ८४१) । १४. गंथो मिच्छत्त धणाइप्रो मत्रो जे य निग्गया तत्तो । ते णिग्गथा वृत्ता XXX ।। ( प्रव. सारो. ७२० ) ; णिग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा । तम्मि णिग्गंथा ते जे जिणसासणभवा मुणिणो ॥ ( प्रब. सारो. ७३१) । १५. तथा कटकर्मोदया मुहूर्तादुपरि समुत्पद्यमानकेवलज्ञान के वलदर्शनद्वयाः निर्ग्रन्था: । (त. वृत्ति श्रुत. - ४६ ) ।
१ निर्ग्रन्थ उसे कहना चाहिए जो एक है, एकवित् - एक आत्मा को ही परलोकगामी मानता है, बुद्ध है, स्रोतों-कर्मालवद्वारों को नष्ट करने वाला है, भली भांति संयत है सुसमित - पांच समितियों के श्राश्रय से मोक्षमार्ग को प्राप्त है, सुसामायिक – शत्रु-मित्र को समान समझता है, श्रात्मवाद को प्राप्त है, विद्वान है, द्रव्य व भाव से द्रव्यस्रोतों एवं भावस्रोतों को विनष्ट करने वाला है, पूजा-सत्कार की प्राप्ति का इच्छुक नहीं है, धर्मार्थी है, धर्मवित् है, और नियाग- मोक्षमार्ग या समीचीन संयम को प्राप्त है। ऐसा निर्गन्ध दान्त होकर शरीर से निर्ममत्व होता हुम्रा समताभाव का आचरण करता है । २ जिनके लकड़ी के द्वारा जल में खींची जाने वाली रेखा के समान कर्म का उदय प्रगट नहीं है, तथा जो श्रन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान श्रौर केवलदर्शन को प्राप्त कर लेने वाले हैं, वे मुनि निर्ग्रन्थ कहलाते हैं । ३ जो वीतराग छद्मस्थ ईर्यापथ को योग - संयम को प्राप्त हैं उन्हें निर्ग्रन्थ कहा जाता है । निर्ग्रन्यत्व - तत्थ श्रब्भतरिया मिच्छत्त-तिवेदहस्स - रदि- प्ररदि- सोग भय दुर्गुछा-कोह-माण मायालोहभेएण चोट्सविहा, बाहिरिया खेत्त-वत्थु घण
जैन - लक्षणावलो
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[ निर्जरा
घण्ण दुवय- चउप्पय- जाण-सयणासण- कुप्प - भंडभेएण दसविहा । कथं खेत्तादीणं भावगंथसण्णा ? कारणे कज्जोवयारादो । वबहारणयं पडुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसि परिच्चागो णिग्गंथत्तं,
इगमणएण तिरयणाणुवजोगी बज्भब्भंतरपरिग्गहपरिच्चाश्र णिग्गथत्तं । ( धव. पु. ६, पृ. ३२३, ३२४ ) |
मिथ्यात्वादिरूप चौदह प्रकार की अभ्यन्तर नोभुत ग्रन्थकृति श्रोर क्षेत्र वास्तु प्राविरूप दस प्रकार की बाह्य नोत ग्रन्थकृति कहलाती है । व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्र वास्तु श्रादि तथा निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्व श्रादि ग्रन्थ कहलाते । दोनों प्रकार के इस ग्रन्थ के परित्याग का नाम निर्व्रन्यता है ।
निर्ग्रन्थधर्म - नास्मिन् मौनीन्द्रव बाह्याभ्यन्तररूपो ग्रन्थो ऽस्यास्तीति निर्ग्रन्थः स चासो धर्मश्च निर्ग्रन्थधर्मः स च श्रुत चारित्राख्यः क्षान्त्यादिको वा सर्वज्ञोक्तः । (सूत्रकृ. सू. शी. बृ. २, ६, ४२ ) । मौनीन्द्र धर्म में मुनियों के प्राचार में - बाह्य और अभ्यन्तर दोनों ही प्रकार का ग्रन्थ (परिग्रह ) नहीं है, इसीलिए उस धर्म को निर्ग्रन्यधर्म कहा जाता है।
निर्जरा - देखो निर्जरानुप्रेक्षा । १. बद्धपदेसग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं । ( द्वादशानु. ६६ ) । २. पुण्वकदकम्मसडणं तु णिज्जरा सा हवे दुविहा । पढमा विवागजादा विदिया अविवागजादा य ॥ (मूला. ५-४८; भ. प्रा. १८४७) । ३. एकदेशकर्म संक्षयलक्षणा निर्जरा । ( स. सि. १-४ ) ; पीडानुग्रहावात्मने प्रदायाभ्यवहृतौदनादिविकारवत् पूर्वस्थितिक्षयादवस्थानाभावात् कर्मणो निवृत्तिनिर्जरा । ( स. सि. ८ - २३ ) । ४. निर्जरा वेदना विपाक इत्यनर्थान्तरम् । ( त. भा. ६-७ ) । ५. तपोबलात् प्राक्तनकर्म हा निस्तथा मुनेः सा खलु निर्जरोक्ता ॥ ( वरांगच ३१ - ९४ ) । ६. निर्जीयंते यया निर्जरणमात्रं वा निर्जरा । निर्जीयते निरस्यते यया निरसनमात्रं वा निर्जरा। (त. वा. १, ४, १२ ) ; एक देशकर्म संक्षय लक्षणा निर्जरा । उपात्तस्य कर्मणो तपोविशेषसन्निधाने सत्येकदेशसंक्षयलक्षणा निर्जरा ।
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