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निरालम्बनयोग] ६१७, जैन-लक्षणावली
[निर्ग्रन्थ संस्थितो मुनिः। कृतात्मात्मगतं ध्यायेत् तन्निरा- त्वेनावस्थानं निरोधः। गमन-भोजन-शयनाध्ययनालम्बमुच्यते ।। (धर्मसं. श्रा. १०, १३३-३४)। दिषु क्रियाविशेषेष अनियमेन वर्तमानस्य एकस्याः ध्यान की जिस अवस्था में न कोई धारणा हो, न क्रियायाः कर्तत्वेनावस्थानं निरोध इत्यवगम्यते । किसी मंत्रपद का चिन्तबन हो, न मन में किसी (त. वा. ६, २७, ५)। २. तस्य एकत्रावस्थापनप्रकार का संकल्प हो; किन्तु अपने प्रात्मा को मन्यत्राप्रचारो निरोधः। (त. भा. सिद्ध. व. प्रात्मा के द्वारा रोककर मनि जो प्रात्मस्थ होता है ९-२७) । उस अवस्था को निरालम्ब ध्यान कहते हैं।
गमन, भोजन और शायन प्रादि क्रियाविशेषों में निरालम्बन योग--xxxतत्तत्त्वगस्त्वपरः ॥ अनियम से प्रवर्तमान मन को किसी एक क्रिया के (षोडश. १४-१)।
कर्तारूप से स्थापित करना, यह चिन्ता का जिनके तत्त्व को-केवलज्ञानादि स्वभाव को- निरोध है। प्राप्त हुए योग (ध्यान) को निरालम्बन योग कहा निर्ग्रन्थ- १. एत्थवि णिग्गन्थे एगे एगविऊ बुद्धे जाता है।
संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए पायवायनिरालम्ब प्रतिसेवना-१. निरालम्बो पालम्बण. पत्ते विऊ दुहमोवि सोयपलिछिन्ने णो पूया-सवकाररहिमो सेवइ । (जीतक. च. १,५.३) । २. निरा. लाभटी धम्मदी धम्मविऊ णियागपडि बन्ने समिलम्बो ज्ञानाद्यालम्बन रहितप्रतिसेवनाकः। (व्यव. यं चरे दन्ते दविए वोसटुकाए णिग्गन्थेत्ति वच्चे। भा. मलय. वृ. १०-६३४)।
(सूत्रकृ. सू. १, १६, ४, पृ. २७३-७४) । २. उद१ ज्ञानादि पालम्बन से रहित जो प्रकल्पित कदण्ड राजिवदन भिव्यक्तोदयकर्माण ऊवं मुहूर्ता(अयोग्य) का सेवन किया जाता है, इसका नाम
दुद्भिद्यमान केवलज्ञान-दर्शनभाजो निर्ग्रन्थाः । (स. दर्पविषयक निरालम्ब प्रतिसेवना है। यह दस प्रकार सि.१-४६)। ३. ये बीतरागछद्मस्था ईर्यापथकी दपित प्रतिसेवना में तीसरी है।
प्राप्तास्ते निर्ग्रन्थाः। ईर्या योगः, पन्था संयमः, निरुपक्रमा निर्जरा-तत्र निरुपक्रमा उपक्रमकारण- योग-संयमप्राप्ता इत्यर्थः। (त. भा. ६-४८)। मन्तरेण संसारिणां परिपाकोदयलक्षणप्राप्तस्य कर्म- ४. उदके वण्डराजिवत्संनिरस्तकणिोऽन्तमहतं केवलणः परिसाद [शाट] रूपा । (स्या. र. २-२३)। ज्ञान-दर्शनप्रापिणो निग्रन्थाः । उदके दण्डराजियथा उपक्रमकारण-कर्मपरिपाक के योग्य प्रयत्नविशेष
प्राश्वेव विलयम्पयाति तथा उनभिव्यक्तोदयकर्माण के बिना जो संसारी जीवों के परिपाकोदय को ।
ऊध्वं मुहर्ताद्भिद्यमानकेवलज्ञान-दर्शनभाजो निम्रप्राप्त कर्म का पृथक्करण होता है, इसे निरुपक्रम
न्थाः । (त. वा. ६, ४६, ४)। ५. निर्ग्रन्थाः निर्जरा कहते हैं।
बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थनिम्रताः साघवः। (प्राव. हरि. व. निरूपण-१. तस्य (प्रालम्बनस्य) नामादिभिः ४, प. ७६०)। ६. निर्गतो ग्रन्थान्निर्ग्रन्थः, बाह्याप्रकल्पना निरूपणम् । (त. वा. १, १२, ११, पृ. भ्यन्त रग्रन्थरहित इत्यर्थः । (दशव. नि. हरि. वृ. ५५) । २. निरूपणमाराधनानिविघ्नसिद्धयर्थं देश- १५८, पृ. ८४)। ७. अव्यक्तोदयकर्माणो ये पयोराज्यादिकल्याणगवेषणम् । (अन. घ. स्वो. टी. दण्डराजिवत् । निर्ग्रन्थास्ते मुहूर्तोवोद्भिद्यमानात्म७-६८)।
केवलः । (ह. पु. ६४-६३)। ८. उदके दण्डराजि१ नामादि के द्वारा पालम्बन की कल्पना का नाम वत्संनिरस्त कर्माणोऽन्तर्मुहूर्त केवलज्ञान-दर्शनप्रापिणो निरूपण है। यह बौद्धाभिमत पांच विज्ञानधातुनों निर्ग्रन्थाः। (त. इलो. ६-४६)। ६. ग्रन्थः कर्मामें तीसरा है। २ अाराधना की निविघ्न सिद्धि के ष्टकप्रकारं मिथ्यात्वाऽविरति-(कषाय-)दुष्प्रणिहितलिए कल्याणकारक देश व राज्य प्रादि के अन्वेषण योगश्च, तज्जये प्रवृत्तानि निर्ग्रन्थानि । निर्गच्छदकरने को निरूपण कहते हैं। यह भक्तप्रत्याख्यान ग्रन्था निर्ग्रन्थाः धर्मोपकरणादृते परित्यक्तबाह्यभ्यमरण से सम्बद्ध अर्हल्लिगादि में से एक है। न्तरोपघयो निर्ग्रन्थाः । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-४८); निरोध--१. अनियतक्रियार्थस्य नियतक्रियाकर्तृ. उपशान्त-क्षीणमोहा निर्ग्रन्थाः। (त. भा. सिद्ध. व.
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