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परिपिण्डित] . ... . ६८२, जैन-लक्षणावली
- [परिभोग अवस्था होती है उसे परिनिर्वृति कहते हैं। इसे स्तु घृतगतकचवरवदवतिष्ठन्ते, श्रुतस्य दोषानेव परंनिर्वाण भी कहा जाता है।
गृह्णाति, गुणांस्तु सर्वथा परिहरति असो, अतोऽयोग्य परिपिण्डित- देखो परिपीडित । १. यत्र संपि- इति भावः । (नन्दी.हरि. व. पृ. १०५)। ३. परिपूणण्डितान् एकत्र मिलितानाचार्यादीनेकवन्दनकेनैव को नाम घृत-क्षीरगालनं सुगृहाभिधचटकाकुलायो वा, बन्दते, न पृथक् पृथक्, तत्परिपिण्डितं वन्दनकमुच्यते। तेन ह्याभीर्यो घृतं गालयन्ति, ततो यथा स परिपूणअथवा वचनानि सूत्रोच्चारणगर्भाणि, करणानि क: कचवरं धारयति धृतमुज्झति तथा शिष्योऽपि यो कर-चरणादीनि, संपिडितानि अव्यवच्छिन्नानि, व्याख्या-वाचनादो दोषानभिगृह्णाति गुणांस्तु मुञ्चति वचनकरणानि यस्य स तथा। उर्वोरुपरि हस्तौ व्यव- स परिपूणकसमानः । XXX । आह च चूर्णिस्थाप्य संपिण्डितकर-चरणौ अव्यक्तसूत्रोच्चारण- कृत्-वक्खाणाइसु दोसं हिययंमि ठवेइ मुयइ गुण
जालं । सो सीसो अ अजोग्गो भणितो परिपुणगसमा(प्राव. ह. वृ. मल. हेम. टि. पृ. ८८; प्रव. सारो. नो ॥१२॥ (प्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. १४३)। व. १५७) । २. संपिडिए व वंदइ परिपिडियवयण- ३ परिपूणक का अर्थ घी की छननी अथवा सुघरी करणो वावि। (प्रव. सारो. १५७)। ३. परि- नामक पक्षी का घोंसला होता है। जिस प्रकार पिण्डितं प्रभूतानां युगपद्वन्दनम्, यद्वा कुक्षेरुपरि ग्वालिनियां परिपूणक से जब घी को छानती हैं तब हस्तौ व्यवस्थाप्य परिपिण्डितकर-चरणस्याऽव्यक्तसू- घी निकल जाता है और कचरा उसके भीतर रह त्रोच्चारणपुरस्सरं वन्दनम् । (योगशा. स्वो. विव. जाता है, उसी प्रकार जो शिष्य परिपूणक के समान ३-१३०)।
व्याख्या व वाचना आदि में दोषों को ग्रहण करता १ एक स्थान पर सम्मिलित हुए अनेक प्राचार्या- है और गुणों को छोड़ देता है उसे परिपूणक समान दिकों की पृथक्-पृथक् वन्दना न करके एक ही शिष्य कहा जाता है। वन्दना के रूप से वन्दना करने को परिपिण्डित- परिपूर्णेन्द्रियता-परिपूर्णेन्द्रियता अनुपहतचक्षुवन्दनक कहते हैं । अथवा जांघों के ऊपर दोनों हाथ रादिकरणता । (उत्तरा. नि. शा. बृ. ५८)। रख करके हाथ-पैरों को संकुचित कर अव्यक्त सूत्रो- चक्षु आदि इन्द्रियों को अविनाशिता-उनके च्चारणपूर्वक वन्दना करने को परिपिण्डितवन्दनक विषयग्रहणसामर्थ्य को परिपूर्णेन्द्रियता कहते हैं । कहते हैं। यह वन्दना के ३२ दोषों में चौथा है। परिभाषा-१. परिभाषणं परिभाषा-कोपापरिपीडित दोष-१. परिपीडितं कर-जानुप्रदेशः विष्करणेन मा यास्यसीत्यपराधिनोऽभिधानम् । परिपीड्य संस्पर्श्य यः करोति वन्दनां तस्य परि- (प्राव. भा. हरि. वृ. ३, पृ. ११४)। २. इयमत्र पीडितदोषः । (मला. व. ७-१०६)। २. हस्ताभ्यां भावना-कोपाविष्करणे नरे इतः स्थानान्मा यासीजानुनो स्वस्य संस्पर्शः परिपीडितम् । (अन. ध. रित्येयं यत् परिभाषणम् । (प्राव. नि. मलय. व. स्वो. टी. ८-६६)। २ दोनों हाथों से अपने जान (घुटने) का स्पर्श १ क्रोध को प्रगट करके नहीं जानोगे, अर्थात अब करते हुए वन्दना करने को परिपीडित दोष कहते आगे क्रोध नहीं करना, इस प्रकार अपराधी से हैं। यह कृतिकर्म के ३२ दोषों में चौथा है। परिपुणक समान शिष्य-१. परिपुणगम्मि य गुणा गलंति दोसा य चिट्ठति ॥ (विशेषा. परिभोग-देखो उपभोग। १. आच्छादन-प्रावरणा१४६३; नन्दी. हरि. वृ. पृ. २२, ११ उद्.)। लंकार-शयनाशन-गृह-यान-वाहनादिः । (स. सि. २. परिपूणको नाम सुघरी चिटिकाविरचितो नीड- ७-२१)। २. परित्यज्य भुज्यत इति परिभोगः । विशेषः, तेन च किल घृतं गाल्यते, ततस्तत्र कचवरम- सकृद् भुक्त्वा परित्यज्य पुनरपि भुज्यते इति परिवतिष्ठते, घृतं तु गलित्वाऽधः पतति, एवं परिपूणक- भोग इत्युच्यते-आच्छादन-प्रावरणालङ्कार-शयनासदृशः शिष्योऽप्युपचारात् परिपूणकः । तत्र हि सन-गृह-यान-वाहनादिः । (त. वा. ७, २१, १०)। श्रुतसम्बन्धिनो गुणा सर्वेऽपि घृतवद् गलन्ति, दोषा- ३. परिभुज्यत इति परिभोगो वस्त्रादि, पुनः पुनः
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