SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 158
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जानुव्यतिक्रम ] राजन्या इत्येवमादयः । ( त. भा. ३ - १५ ) । २. इक्ष्वाकु ज्ञातिभोजादिषु कुलेषु जाताः जात्यार्याः । (त. वा. ३, ३६, २ ) । ३. इक्ष्वाकवो ज्ञातहरिविदेहाः कुरवोऽपि च । उग्रा भोजा जात्यार्या एवमादयः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ६७४)। राजन्याश्च १ इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न, विदेह देश में उत्पन्न, हरिवंशोत्पन्न, श्रम्बष्ठ नाम के देश में उत्पन्न, ज्ञातृवंशोत्पन्न कुरुवंशज, बुंबुनाल, उग्रवंशीय, भोजवंशीय धौर क्षत्रिय इत्यादि जात्यार्य कहलाते हैं । जानुव्यतिक्रम- जानुदघ्नतिरश्चीन काष्ठाद्युपरिलङ्घनम् । जानुव्यतिक्रमः XXX ॥ ( अन. ध. ५–४७) । ४६०, जेने-लक्षणावली जानु के बराबर श्राड़े पड़े हुए काष्ठ व पाषाण आदि को लांघ करके श्राहार के लिए जाना, इसे जानुव्यतिक्रम अन्तराय कहते हैं । जान्वधः परामर्श -- स्याज्जान्वधः परामर्श: हस्तेन जान्वधः । ( श्रन. ध. ५ - ४६ ) । श्राहार के समय सिद्धभक्ति करने के पश्चात् हाथ से जान से नीचे के भाग के स्पर्श करने को जान्वध:परामर्श अन्तराय कहते हैं । जाहरूमान शिष्य- जाहक: तिर्यग्विशेषः, तदुदाहरण भावना यथा जाहकः स्तोकं स्तोकं क्षीरं पीत्वा पाश्र्वाणि लेढि तथा शिष्योऽपि पूर्व गृहीतं सूत्रमर्थं वा प्रतिपरिचितं कृत्वा अन्यत् पृच्छति जाहकसमान: । (श्राव. नि. मलय वृ. १३६, पृ. १४४)। Jain Education International स्पर्शो जैसे जाहक (साही या सेही ) थोड़ा-थोड़ा दूष काजू-बाजू के भागों को चाटती है, उसी प्रकार जो शिष्य गुरु से उपदिष्ट सूत्र और अर्थ को ग्रहण कर उसे अच्छी तरह स्मरण करके पुनः आगे के सूत्र और अर्थ को गुरु से पूछता है, उसे - जाहक समान शिष्य कहते हैं । जिगोषु -- स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थं साघन दूषणाभ्यां परं पराजेतुमिच्छुजिगीषुः । (प्र. न. स. ८- ३ ) । अपने स्वीकृत धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए अपने पक्ष के साधक प्रमाणों से तथा विपक्ष को बाधा पहुंचाने वाले दूषणों से विपक्षी को जीतने के इच्छुक वादी को जिगीषु कहते हैं । [ जिन जिघ्रास मररण- घ्राणनिरोध कृत्वा मरणं जिघ्रासमरणम् । (भ. श्री. मूला. २५) । नाक बन्द करके — श्वास को रोक कर मरने को जिघ्रासमरण कहते हैं । जित - नैस वृत्तिजितम्, जेण संसकारेण पुरिसो भादागमम्मि श्रक्खलियो संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे । ( धव. पु. ६, पू. २५२ ) ; पडिवखलणेण विणा मंथर गईए सगविसए संचरमाणो कदिग्रणियोगो जिदं णाम । (घव. पु. ε, पू. २६८ ) ; जो अवगयमत्थं सणि सणि चितऊण वोत्तुं समत्थो सो जिदं णाम सुद | (घव. पु. १४, पृ. ८) । स्वाभाविक वृत्ति का नाम जित है, अर्थात् जिस संस्कार से पुरुष भावागम में निर्बाध गति से संचार करता है उससे युक्त वह पुरुष और वह भावागम भी जित कहलाता है । जितमोह - जो मोहं तु जिणित्ता णाणसहावाधियं मुइ प्रा । तं जिदमोहं साहुं परमट्ठवियाणया विति । ( समय प्रा. ३७ ) । जो मोह को जीत करके ज्ञा.क स्वभाव से अधिक - उस ते परिपूर्ण - श्रात्मा का अनुभव करता है उस साधु को जितमोह कहते हैं । जितेन्द्रिय - १. जो इंदिये जिणत्त । णाणसहादाधिश्र मुणदि प्रदं । तं खलु जिदिदियं ते भांति जे णिच्छिदा साहू || ( समय प्रा. ३६) । २. जित्वेन्द्रि याणि सर्वाणि यो वेत्त्यात्मानमात्मना । गृहस्थो वानप्रस्थो वा स जितेन्द्रिय उच्यते ॥ ( उपासका. ८५८) । १ जो इन्द्रियों को जीत कर ज्ञानस्वभाव से अधिक -- तत्स्वरूप -- श्रात्मा को जानता है उसे जितेन्द्रिय कहते हैं । जिन - १. जिदको ह-माण माया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति । (मूला. ७-६४; श्राव. नि. १०७६ ॥ २. राग-द्वेप - कषायेन्द्रिय परीषहोपसर्गाष्ट प्रकार कर्मजेतृत्वाज्जिना: । ( श्राव. सू. हरि. वृ. २- १, पु. ४६४; मलय. वृ. पू. ५६२ ) । ३. तत्र राग-द्वेषकषायेन्द्रिय परीषहोपसर्ग-घातिक मंजेतृत्वाज्जिनाः । (ललितवि. पृ. ५६; दशवं. नि. हरि. वृ. १-१४)। ४. तथा रागादिजेतारो जिना: । ( ललितवि. पु. ६० ) । ५. जिनेन्द्रो देवता तत्र रागद्वेषविवर्जितः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy