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छोटितदोष ]
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सावद्यव्यापारपर्यायं प्रायश्चित्तंछित्त्वा श्रात्मानं व्रतधारणादिपं च प्रकारसंयमरूपधर्मे स्थापयति छेदोपस्थापन संयतः स्यात् । (गो. जी. जी. प्र. टी. ४७१) ।
१ प्रमाद के वश होकर किये गये अनर्थ समूह ( दोषों) के दूर करने के विषय में जो उचित प्रतीकार किया जाता है उसका नाम छेदोपस्थापना चारित्र है । श्रथवा विकल्प के हिंसादि के भेद से होने वाले सावद्य कर्म के भेद के – सद्भाव को छेदोपस्थापना चारित्र जानना चाहिये । छोटितदोष -- भुज्यते बहुपातं यत्करक्षेप्यथवा करात् । गलद् भित्वा करो त्यक्त्वाऽनिष्टं वा छोटितं च तत् ॥ ( श्रन. ध. ५-३१) । अधिक अन्न-पान नीचे गिराते हुए भोजन करना, परोसने वाले के हाथ से अथवा अपने हाथ से दूधछांछ प्रादि नीचे गिरते हुए भोजन करना, अथवा प्रिय वस्तु को छोड़कर प्रिय वस्तु को खाना, इत्यादि प्रकार से भोज्य सामग्री को छोड़ते हुए भोजन करने को छोटित दोष कहते हैं । जगत् - १. स्थिति-जनननिरोधलक्षणं चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम् । (स्वयंभू. ११४) । २. सकल चेतनेत रक्षणपरिणाम लवविशेषाः परस्परविविक्तात्मानस्तदन्योन्याभावमात्रं जगत् । ( श्रष्टश. १-१४) । ३. जगत् चेतनाचेतनद्रव्यसंहतिः । (भ. श्री. विजयो. ८२ ) ।
१ जिसका लक्षण प्रत्येक समय में होनेवाली धौव्य, उत्पाद और व्यय रूप अवस्था है तथा जो चराचर ( स्थावर-जंगम ) पदार्थों से परिपूर्ण है उसे जगत् कहा जाता है । ३ चेतन और श्रचेतन द्रव्यों के समुदाय को जगत् कहते हैं ।
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जगत्श्रेणी - - १. उद्वारपल्लछेदो तस्सासंखेयभागमेत्ते य पनघणं गुलबग्गिदसंवग्गिदयम्हि सूइजग सेढी ॥ ( ति. प. १ - १३१ ) । २. असंख्येयानां वर्षाणां यावन्तः समयास्तावत्खण्डमद्धापल्यं कृतम्, ततोऽसंख्येयान् खण्डानपनीयाऽसंख्येयमेकं भागं बुद्ध्या विरलीकृत्य एकैकस्मिन् घनाङ्गुलं दत्त्वा परस्परेण गुणिता जाता जगच्छ्रेणी । (त. वा. ३, ३८, ७) । ३. रज्जू सत्तगुणिदा जगसेढी । धव. पु. ४, पृ. १८४) । ४. होदि प्रसंखेज्जदिमप्पमाणबिदंगुलाण हदी । ( त्रि. सा. ७) ।
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[जघन्य अन्तर्मुहूर्तं
१ श्रद्धापत्यको श्रद्धच्छेद राशि के असख्यातवें भाग प्रमाण घनांगुलों को रखकर उनको परस्पर गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न होती है उसे जगच्छ्र ेणी कहते हैं ।
जगत्स्वभाव - १ तत्र जगत्स्वभावो द्रव्याणामनाद्यादिमत्परिणाममयुक्ताः प्रादुर्भाव तिरोभावस्थित्यन्यतानुग्रहविनाशा: । ( त. भा. ७–७ ) । २. तांस्तान् देव मानुष- तिर्यङ्-नारकपर्यायानत्यर्थं गच्छतीति जगत्-- प्राणिजातमुच्यते धर्मादिद्रव्यस न्निवेशो वा X X X । तत्र जगत्स्वभावस्तावत् प्रियविप्रयोगाप्रियसम्प्रयोगेप्सितालाभ-दारिद्र्य दौर्भाग्य-दौर्मनस्य-वध-बन्धनाभियोगासमाधि- दुःख संत्रेदनलक्षणः, तथा "माता भूत्वा दुहिता [प्रशमरति १५६ ]" इत्यादि । तथा सर्वस्थानान्यशाश्वतानि संसारिणां संसार इति । धर्मादिद्रव्याणां च परिणामित्वादनन्तपर्यायरूपेण गमनात् तेष्वपि परि नामनित्यतां भावयेत् । (त, भा. सिद्ध. वृ. ७-७ ) । १ द्रव्यों के अनादि और श्रादिमान् (सादि) परिणामों से युक्त प्रादुर्भाव ( उत्पाद), तिरोभाव (व्यय) स्थिति, भिन्नता, परस्पर का उपकार और प्रायोगिक विनाश रूप परिणाम; यह सब जगत् का स्वभाव है । २ देव, मनुष्य, तिथंच और नारकी श्रादि श्रवस्थाओं को जो बार-बार प्राप्त किया जाता है, इसी का नाम जगत् (संसार) है । उसमें प्राणी का इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, इच्छित वस्तु का लाभ, दरिद्रता, दुर्भाग्य, दुष्ट विचार, वध, बन्धन, अभियोग और समाधि रूप दुःखों का जो अनुभव होता है; यही जगत् का स्वभाव 1 जघन्य अन्तरात्मा - प्रविरयसम्मादिट्ठी होंति जहण्णा जिदिपयभत्ता । अप्पाणं णिदंता गुणगहणे सुट्टु श्रणुरता || (कार्तिके. १६७ ) । जो जिनेन्द्रचरणों के भक्त होते हुए गुण ग्रहण में अतिशय अनुरक्त रहते हैं और श्रात्म-निन्दा से युक्त होते हैं ऐसे अविरत सम्यग्दृष्टियों को जघन्य अन्तरात्मा कहा जाता है । जघन्य अन्तर्मुहूर्त - ग्रावल्युपरि एकः समयोऽधिको यदा भवति तदा जघन्योऽन्तर्मुहूर्तो भवति । ( चारित्रप्रा. टी. १७) ।
एक समय अधिक प्रावलीको जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहते हैं ।
४५३, जैन-लक्षणावली
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