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काणकक्रयी] ३३४, जन-लक्षणावली
[काम (पुरुषार्थ) दशम् ॥ (अन. ध.२-७५)। ८. कंखा आकांक्षा। ५११-१३)। २. नील-लोहितवर्णद्वययोगिद्रव्यावसा च प्रतिनियतविषयव ग्राह्या, xxx ततो ष्टम्भात् कापोतलेश्या xxx कापोतलेश्यायाः दर्शन-व्रत-दान - देवार्चन-तपोजनितपुण्यमाहात्म्यात् प्रातिलोभ्यनानिष्टपरिणामापेक्षा अनिष्टा अनिष्टकुलं रूपं वित्तं स्त्री-पुत्रादिकं शत्रुपमर्दनं स्त्रीत्वं तरा अनिष्टतमा चेति । पासा षण्णामपि लेश्यानां पुस्त्वं सातिशयं मे भूया दत्याशंसनं दर्शनस्य मलः जम्बवृक्षफलभक्षकदृष्टान्तेनागमप्रसिद्धेन ग्रामदाहकस्यात् । (भ. प्रा. मला. ४४)। ६. इह-परलोक- पुरुषषटकेन च प्रसिद्धिरापाद्या। (त. भा. सिद्ध. भोगाकाङक्षणं काक्षा (त. वृत्ति श्रुत. ७-२३, व. २-३)। ३. कसायाणुभागफहयाणमुदयमागदाणं कार्तिके. टी. २२६)।
जहण्णफद्दयपहडि जाव उक्कस्सफद्दया त्ति ठइदाणं १ इस लोक व पर लोक सम्बन्धी विषयों की इच्छा छब्भागविहत्ताणं चउत्थभागो तिव्वो, तदुदएण जादकरना, इसका नाम कांक्षा है। ४ कांक्षा का अर्थ गृद्धि कसानो काउलेस्सा णाम । (धव. पु. ७, पृ. १०४)। (लोलुपता) व आसक्ति होता है । सम्यग्दर्शन, व्रत, १दूसरे के ऊपर क्रोध करना, निन्दा करना, दूसरों दान, देवपूजा और तपश्चरण से उपाजित पुण्य के को दुःख देना, वैर करना, शोक और भय से ग्रस्त द्वारा मुझे कुल, रूप, धन, स्त्री-पुत्रादि, शत्रु का रहना, दूसरे के ऐश्वर्यादि को सहन न कर सकना, विनाश तथा स्त्री या पुरुष पर्याय विशेषता से संयुक्त दूसरे का तिरस्कार करना, अपनी प्रशंसा प्राप्त हो; ऐसी इच्छा करना, इसका नाम कांक्षा करना, दूसरे का विश्वास न करना, अपने है। यह सम्ज्ञग्दर्शन को दूषित करने वाली-उसका समान दूसरों को भी वेईमान समझना; अपनी अतिचार-है।
प्रशंशा करने वाले पर प्रसन्न होना, अपनी हानि कारणकनयी-काणकत्रयी बहुमूल्यमपि अल्पमूल्येन वृद्धि को न समझना, रण में मरण चाहना, स्तुति चौराहृतं काणकं हीनं कृत्वा क्रीणातीति । (प्रश्न- करने वाले को बहुत धन देना, कार्य-अकार्य को व्या. अभय. बृ. पृ. १६३)।
गणना न करना; इत्यादि प्रकार की मनोवृत्ति या जो चोर के द्वारा लाये गये बहुत मूल्य वाले भी भावों की कलुषता को कापोतलेश्या कहते हैं। कानक को-कनकनिर्मित आभूषणादि को-हीन २ नील और लाल वर्णयुक्त द्रव्यों के प्राश्रय से जो करके थोड़े से मूल्य में ले लेता है उसे कानकक्रयी परिणति होती है, उसका नाम कापोतलेश्या है। कहते हैं।
कापोतलेश्यारस- जह तरुणअंबयरसो तुवरकानन सामान्यवक्षवन्दं नगरासन्नं काननम् । कवितस्स वावि जारिसमो। इत्तो वि अणंतगुणो रसो (जीवाजी. मलय. वृ. १४२)।
उ काऊए नायव्यो । (उत्तरा. ३४-१२)। नगर के समीपवर्ती साधारण वृक्षों के समुदाय को कच्चे प्राम या कच्चे कैथ के खट्टे रस से भी कानन कहते हैं।
अनन्तगुणा कापोतलेश्या का रस होता है। कापटिक-परमर्मज्ञः प्रगल्भश्छात्रः कापटिकः । कापोतलेश्यावर्ण-अयसीपुष्फसंकासा कोइलच्छ(नीतिवा. १४-६)।
दसन्निभा। पारेवयगीवनिभा काउलेस्सा उ वण्णो ॥ दूसरे के मर्म के जानने वाले प्रगल्भ छात्र को काप- (उत्तरा. ३४-६) । टिक कहते हैं।
वर्ण की अपेक्षा कपोतलेश्या अलसी के फूल, कोकिकापोतलेश्या-१. रूसदि णिददि अण्णे दूसदि लच्छद (एक वनस्पति) और कबूतर के गले के बहुसो य सोयभयबहुलो। असुयदि परिभवदि परं । वर्ण के समान होती है। पसंसदि य अप्पयं बहुसो॥ ण य पत्तियइ परं सो काम (पुरुषार्थ)-१. प्राभिमानिकरसानुविद्धा अप्पाणमिव परं पि मण्णंतो। तूसदि अभित्थुवंतो यत: सर्वन्द्रियप्रीतिः स कामः। (नीति. ३-१, ण य जाणइ हाणि-बड्ढीयो॥ मरणं पत्थेइ रणे योगशा. स्वो. विव. १-५२) । २. संकल्परमणीदेदि सुबहुग्रं हि थुब्वमाणो दु। ण गणइ अकज्ज- यस्य प्रीतिसंभोगशोभिनो रुचिरस्याभिलाषस्य नाम कज्जं लक्खणभेदं तु काउस्स ।। (प्रा. पंचसं. १, काम इति स्मृतिरिति वचनात् कामश्च यथेष्टाभि१४७-४६; धव. पु. १, पृ. ३८६ उ.; गो. जी. मानिकरसानुविद्धसर्वेन्द्रियप्रीतिहेतुः कुलाङ्गनासङ्गि
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