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प्रव्यमन]
५५४, पेन-सक्षणावली
[ग्यसंगम
२-११)। ५. हिदि होदि है दव्यमणं वियसिय- द्रव्यमल-द्रव्यमलं द्विविधं बाघमाभ्यन्तरं । भट्टच्छदारविदं वा। अंगोवगूदयादो मणवग्गण- तत्र स्वेद-रजोमलादि बाह्यम् । घन-कठिनजीवप्रदेशखंघदो णियमा । (गो. जी. ४४३)। ६. द्रव्यमन- निबद्धप्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेश विभक्तज्ञानावरणाद्यइच ज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमलाभप्रत्यया ष्टविधकर्म प्राभ्यन्तरद्रव्यमलम् । (धव. पु. १.पृ. गुण-दोषविचार - स्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्म- ३२)। नोऽनुग्राहका पुदगला वीर्यविशेषावर्जनसमर्था मन- बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से द्रव्यमल दो प्रकार स्त्वेन परिणताः। (चा. सा. पृ. ३६) । ७. तत्र का है। इनमें पसीना मोर धूलि प्रादि को बाह्म मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मन:प्रायोग्यवर्गणाद- द्रव्यमल तथा प्रात्मप्रदेशों से सम्बद्ध प्रकृति व लिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तद् द्रव्यरूपं मनः। स्थिति प्रादि भेदों में विभक्त ज्ञानावरणादि पाठ तथा चाह चूणिकृत्-मणपज्जति नामकम्मोदयग्रो प्रकार के कर्म को भावमल कहते हैं। तज्जोग्गे मणोदव्वे घेत्तं मणतेण परिणामिया दव्वा द्रव्यमंगल-१. सूरि-उवझय-साहूदेहाणि हु दम्वदव्वमणो भष्णइ । (नन्दी. मलय. वृ. २६, पृ. मंगलयं ॥ (ति. प. १-२०)। २. दवए दुयए १७४; प्रज्ञाप. मलय. व. १५-२००, पृ. ३११)। दोरबयवो विगारो गुणाण संदावो। दव्वं भावं ८. द्रव्यमनो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तं तद्योग्य- भावस्स भूप्रभावं च जं जोगं ॥ (विशेषा. २८)। पुद्गलमयम् । (प्राव. सू. मलय. व.पृ. ५५७)। ३. उत्तरगुणनिप्फन्ना, सलक्खणा जे उ होति ६. तत्र द्रव्यमनो विशिष्टाकार परिणता: पुदगलाः। कुंभाई। तं दव्वमंगलं खलु जह लोए मटू मंगल(योगशा. स्वो. विव.४-३५)। १०. तदभिमुख- गा॥ गंतियं मणच्चंतियं च दवे उ मंगलं होह। स्यास्यवानुप्राही पुद्गलोच्चयो द्रव्यमनः। (भ.पा. (बृहत्क. ९-१०)। ४. 'दु द्रु गतौ' द्रवते दूयते या मला. १३२)। ११. नोइन्द्रियावरण-वीर्यान्तराय- द्रोरवयवो विकारो वा द्रव्यं 'द्रव्यं च भव्ये' [पा. क्षयोपशमसन्निधाने सति द्रव्यमनसा xxx ५।३।१०४] यत्प्रत्ययान्तस्य प्रव्यं तत्र ज्ञात-भव्य(मन. प. स्वो. टी. १-१, पृ. ४)। १२. द्रव्यम- शरीराभ्यां व्यतिरिक्तं द्रव्यमंगलं दध्यक्षत-सुवर्गनोऽपि ज्ञानावरणवीर्यान्त रायक्षयोपशमांगोपांगनाम- सिद्धार्थक-पूर्णकलशादि । (दशवं. प., पृ. २) । कमलाभप्रत्यय गुण-दोषविचार-स्मरणादिप्रणिधाना- ५. भूतस्य भाविनो भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । भिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकपुद्गलानां तथात्वेन परि- तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥xxx णमनात पोद्गलिकम् । (गो. जी. जी. प्र. टी. द्रवति गच्छति तांस्तान् पर्यायान् क्षरति चेति ६०६ कातिके. टी. २०६); वीर्यान्त राय नोइन्द्रि- द्रव्यम्, xxx सचेतनम् अनुपयुक्तपुरुषाख्यम्, यावरणक्षयोपशमेन अंगोपांगनामोदयेन च मन:- अचेतन शरीगदि तथा भूतमन्यद् वा।xxx पर्याप्तियुक्तजीवस्य मनोवर्गणायात पुद्गलस्कन्धा- द्रव्यं च तन्मंगलं चेति समासः। (प्राव. हरि वृ. मामष्ट च्छदारविदाकारेण हृदये निर्माणनामोदय- १, पृ. ५)। ६. दवमंगलं णाम अणागयपज्जायसंपादितं द्रव्यमनः । (गो. जी. जी. प्र. टी. ७०३)। विसेस पडुच्च गहियाहिमुहियं दव्वं अतभावं वा। १ पुद्गलविपाको नामकर्म के उदय से जो पृद्- (धब. पु १, पृ. २०)। गल मनरूप से परिणत होते हैं उन्हें द्रव्यमन कहा १ प्राचार्य, उपाध्याय और साधु के शरीर को जाता है। २ मन:पर्याप्ति नामकर्म के उदय से योग्य द्रव्यमंगल कहा जाता है। २ जो अपनी पर्यायों को मनोव्य-मनवर्गणा-को ग्रहण करके मनरूप प्राप्त होता है. अथवा उनके द्वारा स्वयं प्राप्त परिणमाये गये द्रव्यों का नाम द्रव्यमान है। किया जाता है उसे द्रव्य कहते हैं । 'दु के अवयवद्रव्यमनोयोग-ततः (भावमनोयोगतः) समुत्पन्नो सत्ता के विकार को भी द्रव्य कहा जाता है मनोवर्गणानां द्रव्यमनःपरिणामरूपो द्रव्यमनोयोगः। गुणों का समुदाय भी द्रव्य कहलाता है। जो (गो. जी. म. प्र. व जी प्र. २२६)।
प्रागामी पर्याय के योग्य है उसे और भूतभाव को भावमनोयोग से उत्पन्न होने वाले मनोवगणाम्रों के द्रव्य (निक्षेप) कहा जाता है। प्रकृत में भविष्य में प्रख्यमनरूप परिणमन को बध्यममोयोग कहते हैं। होने वाली पर्याय विधक्षित है। जो तथ्य मंगलरूप
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