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दिव्यध्वनि ]
दिव्यध्वनि- - १. जादे प्रणतणाणे णट्ठे छदुमट्ठिीमामि । णवत्रिपदत्थसारा ( धव. - त्थगन्मा) दिव्वणी कहइ सुत्तत्यं ॥ ( ति प १–७४; धव. पु. १, पृ. ६४ उद्) । २. स्वर्गापवर्गगममार्गविमाणेष्टः सद्धर्मतस्त्वकथने कपटुस्त्रिलोक्या: । दिव्य ध्वनिर्भवति ते विशदार्थ सर्वभाषास्वभाव परिणामगुणप्रयोज्यः ॥ ( भक्तामर ३५ ) । ३. केरिसा सा (दिव्वज्भुणी ) ? सब्वभासासरूवा श्रक्खराणक्खरपिया अणंतत्थगम्भबीजपदघडियसरीरा तिसंज्भू-३-११८) | विसय छघडियासु निरंतरं पयट्टमाणिया इयरकाले सु संसय-विवज्जासाणज्भवसाय भावगयगणहरदेवं पडि वट्टमाणसहावा संकर व दिगराभावादो विसदसरूवा एकणवीसम्म कहाकहणसहावा । ( जयध. १, पू. १२६) । ४. सकलवचनभेदाकारिणी दिव्यभाषा । जीव. व. ६-१६, पु. १११ ) । १स्थ अवस्था के ज्ञान ( क्षायोपशमिक [मत्यादि) के नष्ट हो जाने पर प्रगट हुए अनन्त ज्ञान ( क्षायिक केवलज्ञान ) के द्वारा जो जीवाजीवादि नौ पदार्थो से सम्बद्ध सूत्र व अर्थ का कथन करती है उसे दिव्यध्वनि कहा जाता है । ३. जो सर्वभाषामयी है, अक्षरात्मक भी है धोर अनक्षरात्मक भी है, अनन्त प्रर्थ-गभित बीजपदों से युक्त है, तीनों संध्या समयों में छह घड़ी निरन्तरप्रवर्तमान होती है, इतर समय में संशय, विपर्यय, व अनध्यवसाय को प्राप्त गणधरदेव के प्रति प्रवर्तमान होती है, संकर-व्यतिकर दोषों के प्रभाव से निर्मल स्वरूप वाली है, तथा जो स्वभावत: उन्नीस धर्मकथानों का निरूपण करती है; ऐसी प्रतिशय वाली तीर्थंकरों की वाणी को दिव्यध्वनि या दिव्यभाषा कहते हैं ।
दिव्यभाषा - देखो दिव्यव्वनि ।
दिशा - १. सगट्टाणादो कंडुज्जुवा दिसा णाम । ( व. पु. ४, पृ. २२६ ) । २. दिसा परलोक बिगुपदर्शनपरसूरिणा स्थापितः भवतां दिशं मोक्षवर्त[ ] न्याश्रयमुपदिशति यः सूरिः स दिशा इत्युच्यते । (भ. आ. विजयो. ६८ ) । ३. दिसा एलाचार्य: संघाधिपतिना यावज्जीवमाचार्यकत्यागेन स्वपदेप्रतिष्ठितः स्वसमानगुणग्रामः, स्वशिष्यः इत्यर्थः । (भ. प्रा. मूला. ६८ ) ।
१ अपने स्थान से वाण के समान सीधे क्षेत्र को
[दीपक सम्यक्त्व
५२२, जैन-लक्षणावली दिशा कहा जाता है । २ जो संघाधिपति के द्वारा अपने पद पर प्रतिष्ठित किया गया है, प्रापको ( या भव्य जीवों को) परलोक की दिशा दिखलाने वाला है, तथा मोक्षमार्ग के प्राश्रय का उपदेशक है, ऐसे सूरि को दिशा कहा जाता है। दीक्षा - १. दीक्षा सर्वसत्त्वाभयप्रदानेन भावसत्रम्। ( पंचव. स्वो वृ. ६, पृ. ४) । २. दीक्षां सर्वसंगपरित्यागलक्षणां भवनाशिनीम् । ( जम्बू. म.
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१ समस्त प्राणियों को अभयदान के द्वारा जो भावसत्र - अन्तरंग सदावर्त (दैनिक अन्नदान का स्थान ) है उसका नाम दीक्षा है । २ समस्त परिग्रह के परित्याग को दीक्षा कहा जाता है । दीक्षागुरु - १. लिंगरगढ़णे तेसि गुरु त्ति पव्वज्जदायगो ! होदि । ( प्रव. सा. ३- १० ) । २. यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायक: स गुरुः । ( प्रव. सा. प्रमृत. वृ. ३ - १० ) ।
लिंग (जिनलग) ग्रहण के समय दोक्षादानपूर्वक निर्विकल्प सामायिक संयम के प्रतिपादक प्राचार्य को दीक्षागुरु कहते हैं ।
दीक्षायोग्य - सुद्धो जाइ-कुलेणं रुवेणं तह य उवसमी धीरो । संविग्गमणो तुट्ठो पव्वज्जं कप्पए पुरिसो ॥ (श्रा. दि. पृ. ७५ उद्) । जो जाति और कुल से शुद्ध रूपवान, शान्तपरिणामी, धीर, सन्तुष्ट एवं संसार से उदासीन हो; वह दीक्षा ग्रहण करने के योग्य होता है ।
दोन - दीनाः पुनः "दीङ् क्षये" इति वचनात् क्षीणसकलघमर्थि· कामाराधनशक्तयः । (ध. बि. मु. व. १-१८) ।
जिसकी धर्म, अर्थ श्रोर कामसेवन की समस्त शक्तियां क्षीण हो गई हों उसे दोन कहते हैं । दीपक सम्यक्त्व - १. सयमिह मिच्छद्दिट्ठी षम्मकहाईहि दीवइ परस्स | सम्मत्तमिणं दीवग कारणफलभावओ नेयं ॥ ( भा. प्र. ५० ) । २. दीपकं तद्यदन्येषामपि सम्यक्त्वदीपकम् । (त्रि. श. पु. च. १, ३, ६१० ) ।
१ जो स्वयं मिथ्यादृष्टि होकर धर्मकथा प्रादिकों के द्वारा दूसरे के सम्यक्त्व का प्रकाशक होता है उसे
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