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दिग्वत] ५२१, जैन-लक्षणावली
[दिवाब्रह्मचारी चतसृणां अग्नि-नैऋत्य-वायवीशानविदिशानां चत- १ तीस मुहूतों का एक दिन होता है। २ चार सृणां ऊर्ध्वदिशः अधोदिशश्चेति दशदिशां परिमाणं पौरुषियों का एक दिवस या दिन होता है। ४ चार मर्यादा योजनाद्यः संख्या, अतः परं अहं न गच्छामि प्रहर का एक दिवस होता है, अथवा सूर्य के द्वारा इति नियमेन मर्यादा क्रियते । अथवा दशसू दिक्ष जो प्राकाश का भाग अपनी प्रभा से व्याप्त किया हिमाचल-विन्ध्यपर्वतादिकं अभिज्ञानपूर्वकं मर्यादां जाता है वह दिवस कहलाता है । ५ सोलह मुहूर्त कृत्वा परतो नियमग्रहणं दिग्विरतिव्रतमुच्यते। का दिवस होता है। १० बारह प्रादि महूतों का (कातिके. टी. ३४१-४२) । २३. परिमाणवतं दिवस होता है । ग्राह्य दिक्षु सर्वासु सर्वदा। स्वशक्त्याऽऽम- [त्म.] दिवसभृतक-भ्रियते पोष्यते स्मेति भृतः, स गुरोः पाश्व तदाद्यं स्याद् गुणव्रतम् ।। (पू. उपा. एवानुकम्पितो भूतकः, कर्मकर इत्यर्थः । प्रतिदिवस २८) । २४. दिग्विरतिर्यथानाम दिक्षु प्राच्यादि- नियतमूल्येन कर्मकरणार्थ यो गृह्यते स दिवसभृतकः । कासु च । गमनं प्रतिजानीते कृत्वा मीमानमाहंतः॥ xxx इह गाथे-दिवसभयो उ घेप्पइ (लाटीसं. ६-१११)।
छिण्णेण धणेण दिवस देवसियं (स्थाना. अभय. वृ. २ दिशासमूह को मर्यादित करके "मैं इससे बाहिर ४,१,२७१)। नहीं जाऊंगा" ऐसा जीवन पर्यन्त के लिए नियम अनुकम्पापूर्वक जिसका भरण-पोषण किया जाता है करके उससे बाहिर नहीं जाना, इसे दिग्विरति या वह भतक कहलाता है। जो भूतक प्रतिदिन निश्चित दिग्वत कहते हैं।
मल्य से-नियमित वेतन देकर--कार्य करने के दिग्व्रत-देखो दिग्विरति ।
लिए ग्रहण किया जाता है उसे दिवसभृतक दिनब्रह्मचारी-देखो दिवाब्रह्मचारी। दिवस-१. xxx मुहुत्तया तीसं । दिवसो दिवाब्रह्मचारी-१. निषेवते यो दिवसे न नारीxxx॥ (ति. प. ४-२८८)। २. चउपोरिसियो मुद्दामकन्दर्पमदापसारी । कटाक्षविक्षेपशरैरविद्धो दवसो xxx ॥ (प्राव. नि. ७३०) । बदिन ब्रह्मचर: स बद्धः ॥ (अमित. श्रा. ७-७२) ३. xxx त्रिंशन्मुहूर्ता दिनरात्रिरेका। (वरांग- २. मैथुनं भजते मर्यो न दिवा यः कदाचन । दिवाच. २७-५)। ४. दिवसश्चतुष्प्रहरात्मकः, यद्वा मैथुननिर्मुक्तः स बुधैः परिकीर्तितः॥ (सुभा. सं. आकाशखण्डमादित्येन स्वभाभिाप्तं तदिवसम् ८३८) । ३. धर्ममना दिवसे गतरागो यो न करोति इत्युच्यते । (प्राव. नि. हरि.. ६६३, पृ. २५७)। वधजनसेवाम् । तं दिनमैथुनसंगविरक्तं धन्यतमं ५. षोडश मुहूर्ता दिवसः । (प्राव. भा. हरि. व. निगदन्ति महिष्ठाः ।। (धर्मप. १६-५८) । ४. मण१९८, प. ४६५) । ६. एक्कबीससहस्स-छस्सय- वयण-काय-कय-कारियाणुमोएहि मेहणं णवधा। मेत्तपाणेहि संवच्छरियाण दिवसो होदि। एत्थ पुण दिवसम्मि जो विवज्जइ गुणम्मि सो सावनो छट्टो । एगलक्ख-तेरहसहस्स-णउदिसयपाणेहिं दिवसो होदि। (वसु. बा. २६६)। ५. मनोवाक्कायसंशुद्धया (धव. पु. ३, पृ. ६७); त्रिंशन्मुहूर्तो दिवसः। दिवा नो भजतेऽङ्गनाम् ॥ भण्यतेऽसौ दिवाब्रह्म(धव. पु. ४, पृ. ३१८); तीसमुहुत्तेहि दिवसो चारीति ब्रह्मवेदिभिः ॥ (भावसं. वाम. ५३८) । होदि । (धव. पु. १३, पृ. ३००)। ७. तीसमुहुत्तो १ उद्धत कामदेव के मद को नष्ट करने वाला जो दिवसो xxx1 (भावसं. दे. ३१४)। ८. तीस- स्त्री के कटाक्षपात रूप बाणों से न बेधा जाकर मुहत्तं दिवसं xxx (जं. दी. प. १३-७)। दिन में उक्त स्त्री का सेवन नहीं करता है वह ६. चतुष्प्रहरात्मको दिवसः यदि वा यावदाकाश- दिनब्रह्मचारी या दिवाब्रह्मचारी कहलाता है। खण्डमादित्येन स्वप्रभाभिप्तिं तावदाकाशपरि- ४ जो मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना भ्रमणच्छिन्नः कालो दिवसः। (प्राव. मलय. व. इन नौ प्रकारों से दिन में मैथुन का परित्याग करता ६६३, पृ. ३४१)। १०. द्वादशादिमुहतों दिवसः। है उसे छठा-छठी प्रतिमा का धारक-श्रावक (प्राव. भा. मलय. व. २००, पृ. ५६३)। जानना चाहिए।
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