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________________ निविश्यमान परिहारबिशुद्धिक] ६२६, जैन-लक्षणावली [निर्वत्तिस्थान या ग्लानि को नहीं करता है उसे निविचिकित्स १ जो विवक्षित चारित्रकाय का परिपालन कर सम्यग्दृष्टि कहते हैं। २ मनुष्यशरीर यद्यपि स्व. चुके हैं वे निविष्टकायिक परिहार विशुद्धिक कहभाव से अपवित्र है, फिर भी चूंकि रत्नत्रय की लाते हैं। उनसे अभिन्न होने के कारण उस चारित्र प्राप्ति का कारण बह मनुष्यशरीर ही है, अतएव को भी निविष्टकायिक परिहारविशुद्धिक कहा रत्नत्रय से पवित्र मुनि प्रादि के शरीर में घृणा जाता है । को छोड़कर गुण के कारण प्रीति करना; इसे निर्वृति (निर्वाण)-नितिनिर्वाणम्-अशेषनिविचिकित्सता अंग कहते हैं। ३शरीर आदि के कर्म-रोगापगमेन जीवस्य स्वरूपेऽवस्थानम्, मुक्तिपदअपवित्र स्वभाव को जानकर 'वह पवित्र है' इस मिति यावत् । (प्राव. नि. हरि. व. ६३)। प्रकार के मिथ्या संकल्प के निराकरण को निवि- सर्व कर्मों से रहित होकर जीव के प्रात्मस्वरूप में चिकित्सा कहते हैं। प्रथवा 'जिनशासन में यदि प्रवस्थान को-मक्तिप्राप्ति को-निवति तपश्चरणादि के घोर कष्ट का विधान न होता तो कहते हैं। अन्य सब संगत था' इस प्रकार की प्रशभ भावना निति (इन्द्रिय)- १. निवर्त्य ते निष्पाद्यते इति के. दूर करने को निविचिकित्सा कहते हैं। निर्वतिः । (स.सि. २-१७)। २. निर्वत्तिरङ्गोनिविश्यमान परिहारविशद्धिक-१. तत्र निवि. पाङ्गनामनिर्वतितानीन्द्रियद्वाराणि, कर्मविशेषसंस्कृश्यमानकास्तदासेवकाः, तदन्यतिरेकात् तदपि ताः शरीरप्रदेशाः, निर्माणनामाङ्गोपाङ्गप्रत्यया मूलचारित्रं निविश्यमान कमिति । (प्राव. नि. हरि. वृ. गुणनिर्वर्त नेत्यर्थः । (त. भा. २-१७) । ३. प्रागारो ११४, पृ. ८०)। २. तत्र निविश्यमानकम् -- निव्वत्ती चित्ता बज्झा इमा अंतो।। पुरफ कलं बुयाए प्रासेव्यमानकम्, परिभुज्यमानकमित्यर्थः xxx धन्नमसूराइमुत्त-च दो य । होइ खुरप्पो नाणागिई य सत्सहयोगात् तदनुष्ठायिनोऽपि निविश्यमानकाः । सोइंदियाईणं ।। (विशषा. ३५६१-६२) Xxx निर्वेशः उपभोगः, निविश्यमानकास्तत् ४. निर्वयते इति नित्तिः। कर्मणा या निर्वय॑ते उपभजानाः। (त. भा. सिद्ध. ब. ९-१८)। निष्पादद्यते सा निवृत्तिरित्यूपदिश्यते । (त. वा. ३. निविश्यमानका विवक्षितचारित्रसेवका: । (प्राव. २,१७,१)। ५. निर्वर्तनं निवृत्ति:-प्रतिविशिनि. मलय. व. ११४, पृ. ११६) । ष्टसंस्थानोत्पत्तिः । (त. भा. हरि.व. २-१७) । १ परिहार एक तपविशेष है, उससे विशुद्धि को ६. णिव्वत्ती णाम चक्खु गोलियाए णिप्पत्ती। (धव. प्राप्त चारित्र परिहारविशद्धिक कहलाता है। जो पु. ७, पृ. ४३६)। ७. स्वरूप-भेदाभ्यां निर्वर्तनं उस चारित्र का सेवन कर रहे हैं उनको तथा निर्वतिः प्रतिविशिष्ट संस्थानोत्पादः। (त. भा. न्न उस चारित्र को भी निविश्यमानक सिद्ध.व. २-१७) । ८. कर्मणा निर्वर्त्यते इति परिहारविशुद्धिक कहते हैं। निर्वृत्तिः । (भ. प्रा. विजयो. ११५, मूला. व. १, निविष्टकायिक परिहारविशुद्धिक-१. प्रासे- १६)। ६. तत्र निर्वृत्तिराकारः। (ललितवि. पं. वितविवक्षितचारित्र कायास्तु निविष्टकायाः, त एव पृ. ३९)। १०. निवृत्ति म प्रतिविशिष्टः संस्थानस्वाथिकप्रत्ययोपादानात् निविष्ट कायिका: तदव्यति. विशेष:। (नन्दी. सू. मलय. व. ३, पृ. ७५; रेकाच्चारित्रमपि निविष्ट कायिकमिति । (प्राव. जीवाजी. मलय. व. १३, पृ. १६; प्रव. सारो. व. नि. हरि.व. ११४, पृ. ८०) । २. निविष्टकायिक- ११०५)। ११. निर्वय॑ते निष्पाद्यते कर्मणा या मासेवितमपभक्तम, xxx निविष्टकायिकास्तु सा निवृत्तिः । (त. वत्ति श्रत. २-१७)। निविष्टः कायो येषामस्ति ते निविष्टकायिकाः, १कर्म के द्वारा जिसकी रचना की जाती है उसे तत्सहयोगात् तेनाकारेण तपोऽनुष्ठानद्वारेण परिभक्तः नित्ति कहा जाता है। ५ प्रतिविशिष्ट प्रकार की कायो यैरिति परिभक्ततादग्विवतपसः, निविष्टका- उत्पत्ति का नाम निवति हे। ६ चक्ष प्रावि यिका इत्यर्थः। (न. भा. सिद्व. व. १-१८)। इन्द्रियों की पुतली आदि के प्राकाररूप रचना होने ३. निविष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः। को निव'त्ति कहते हैं। (प्राव. नि. मलय. वृ. ११४, पृ. ११६)। निर्वृत्तिस्थान- अप्पप्पणो जहणणिव्वत्तिट्ठाणे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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