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ग्रहसम] ४२३, जैन-लक्षणावली
[प्रैवेयक को ग्रहण कहा जाता है । यह पाठ बुद्धिगुणों में से निरन्तरं यथाशक्तिनानाविधतपःपरः । संयम सप्त
दशधा धारयन्नविखण्डितम् ।। अष्टादशप्रकारं च ग्रहसम-प्रथमतो वंश-तंत्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीत- ब्रह्मचर्य समाचरन् । यत्रेदक ग्राहको दानं तत् स्याद् स्तत्समेन स्वरेण गीयमानं ग्रहसमम । (अनुयो. मल. ग्राहकशुद्धिमत् ।। (त्रि. श. पु. च. १, १,१७८ से हेम. वृ. गा. ५०, पृ. १३२) ।
१८२)। बांसुरी व बीणा प्रादि से निकले हए स्वर को पहले २ जो सर्वसावद्य योगसे विरत, तीन प्रकार के गौरव प्रहण करके पीछे उसी स्वर के समान स्वर से गाये से रहित, तीन गप्तियों व पांच समितियों से युक्त, जाने वाले गीत को ग्रहसम कहते हैं।
राग-द्वेष से रहित; नगर, वसति, शरीर और उपग्राम-१. तत्र ग्रसति बुद्धयादीन् गुणान् इति करणादि विषयक ममता से रहित; अठारह हजार ग्रामः। (दशवै. हरि. व. ४-६, पृ. १४७)। शीलों के धारण में कुशल, रत्नत्रय का धारक, २. वृतिपरिवृतो ग्रामः (धव. पु. १३, पृ. ३३६)। सुवर्ण व ढेले को समान समझने वाला, दो उत्तम ३. ग्रामो जनपदाश्रितः सन्निवेशविशेषः । (प्रश्न- ध्यानों (धर्म्य व शक्ल) का ध्याता, यथाशक्ति व्या. अभय. वृ. पृ. १७५)। ४. ग्रामो जनपदाध्या- निरन्तर नाना प्रकार के तप में निरत, निर्दोष सात सितः। (औपपा. अभय. वृ. ३२, प. ७६)। प्रकार के संयम का धारक और अठारह प्रकार के ५. वृत्यावृतो ग्रामः । (नि. सा. टी. ५८)। ब्रह्मचर्य का परिपालक होता है; ऐसा साधु जिस ६. ग्रसति बुद्ध यादीन् गुणानिति, यदि वा गम्यः दान का ग्राहक हो उसे ग्राहकशुद्ध दान कहा शास्त्रप्रसिद्धानामष्टादशानां कराणामिति ग्रामः। जाता है। (जोवाजी. मलय. व. सू. ३६, पृ. ३६, तथा सू. ग्रोवाधोनयन- xxx शिरोधेर्बहुधाप्यधः ॥ १४७, पृ. २७६)।
(अन. ध. ८-११६); बहुधा बहुभि: प्रकारैः, १ जो बुद्धि प्रादि गुणों को प्रसता है जहां कृषक अप्यध: अधस्तादपि बहुधा ग्रीबानयनम् xxx प्रादि मन्दबुद्धि जन रहते हैं, विशेष बुद्धिमान् ग्रीवाघोनयनं दोषः । (अन. ध. स्वो. टी. ८-११९)। जन नहीं रहते-उसे ग्राम कहते हैं । २ कांटों की कायोत्सर्ग करते समय बार-बार शिर के नीचा वृति (बारी) से घिरे हुए घरों के समुदाय को करने को ग्रीवाधोनयन दोष कहते हैं। यह कायोग्राम कहा जाता है। ६ जो शास्त्रप्रसिद्ध अठारह लर्ग के ३२ दोषों में २१वां दोष है।। प्रकार के करों (टैक्सों) का गम्य है वह ग्राम कह- ग्रीवोनयन-xxx ऊर्ध्वं नयनं शिरोधेः लाता है।
XXX॥ (अन. ध. ८-११६); शिरोधेर्गीवाया ग्रामदाह-ग्रामदाहोऽग्निना दाहे ग्रामस्य xx ऊर्ध्व नयन xxx ग्रीवोनयन दोषः । (अन.
x (अन. ध. ५-५७); ग्रामदाहो नाम भक्ति - ध. स्वो. टी. ८-११६)। विघ्नः स्यात् । क्व सति ? अग्निना दाहे ग्रामस्य- कायोत्सर्ग करते समय ग्रीवा के ऊपर करने को स्वाध्यासितग्रामे दह्यमाने सति । (अन. घ. स्वो. ग्रीवो नयन दोष कहते हैं। टी. ५-५७)।
ग्रेवेयक-१. लोकपुरुषस्य ग्रीवास्थानीयत्वात् अपने द्वारा अधिष्ठित गांव के जलने को ग्रामदाह ग्रीवाः, ग्रीवासु भवानि ग्रैवेयकाणि विमानानि, कहते हैं। यह भोजन के अन्तरायों में से एक है। तत्साहचर्यादिन्द्रा अपि ग्रैवेयका: । (त. वा. ४, १६, ग्राहकशुद्ध दान-१. तत्र ग्राहकशुद्धं तु यत्र गृहीता २)। २. लोकपुरुषग्रीवास्थाने भवानि ग्रेवेयकानि चारित्रगुणयुक्तः । (विपाक. अभय. व. २-१, प. विमानानि । (प्राव. नि. हरि. व. ५० व ६५) । ६३)। २. सावद्ययोगविरतो गौरवत्रयजितः। ३. ग्रेवेयकास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेश विनिविष्टा त्रिगुप्तः पंचसमितो राग-द्वेषविनाकृतः ।। निर्ममो ग्रीवाभरणभूता ग्रेवा ग्रीच्या वेया ग्रेवेयका इति । नगरवसत्यगोपकरणादिषु । ततोऽष्टादशशीलाग- (त. भा. सि. ४-६०)। सहस्रधरणोद्धरः ।। रत्नत्रयधरो धीरः समकाञ्चन- १ लोकरूप पुरुष के ग्रीवास्थान पर अवस्थित लोष्ठकः । शुभध्यानद्वयस्थास्नुजिताक्षः कुक्षिसंबलः॥ विमानों को प्रैवेयक कहा जाता है। उन विमानों
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