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द्रव्यतः क्रमोत्तर] ५४७, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यद्रव्य १रूप-रसादिरूप इन्द्रिय विषयों में प्रादर (राग) नहीं है। यही द्रव्यतः न भावतः हिंसा कहलाती है। से अथवा कोप (द्वेष) के वश प्रवृत्त न होना, इसे द्रव्यतीर्थ-१. दाहोपसमण तहाछेदो मलपंकपद्रव्यतः इन्द्रियविवेक कहते हैं अथवा इसे देखता वहणं चेव । तिहिं कारण हिं जुत्तो तम्हा तं दव्वदो हूं, उसे सुनता हूं, उस स्त्री के कुचों को देखता हूं, तित्थं ।। (मूला. ७-६२)। २. द्रव्यतीर्थ तीर्थकृतां अथवा नितम्बगत रोमपंक्ति को देखता हं, इत्यादि जन्म-दीक्षा-ज्ञान-निर्वाण-स्थानम् । यदाह-जम्म रूप से वचन का उच्चारण न करना; इसे द्रव्यतः दिक्खा णाणं तित्थयराणं महाणुभावाणं। जत्थ य इन्द्रियविवेक जानना चाहिए।
किर निव्वाणं पागाढं दसणं होई । (योगशा. स्वो. द्रव्यतः क्रमोत्तर-तत्र द्रव्यत: परमाणोद्विप्रदे- विव. २-१६)।। शिकः ततोऽपि त्रिप्रदेशिकः एवं यावदन्तोऽनन्तप्रदे- १सन्ताप की शान्ति, तुष्णा का विनाश और मल. शिकः स्कन्धः। (उत्तरा. नि. शा.व. १.१, पृ. ४)। रूप कीचड़ का दूर करना; इन तीन कारणों से परमाण की अपेक्षा द्विप्रदेशी स्कन्ध, उसकी अपेक्षा जो युक्त है-उनका कारण है-उसे व्यती त्रिप्रदेशी स्कन्ध, इस प्रकार अन्तिम अनन्तप्रदेशी कहते हैं। २ तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान और स्कन्ध तक उत्तरोत्तर बढ़ते हुए स्कन्धों को द्रव्यतः निर्वाण स्थानों को द्रव्यतीर्थ कहा जाता है। क्रमोत्तर कहते हैं।
द्रव्यदिक्-तेरसपएसियं खलु तावइएसं भवे पएद्रव्यतः लोभविवेक-द्रव्यतो लोभविवेको यत्रास्य सेसुं । जं दध्वं प्रोगाढं जहण्णयं तं दसदिसागं ।। लोभस्तदुद्दिश्य कराप्रसारणादिकः कायेन, ममेद- (प्राचारा. नि. ४१. पृ. १२) । मित्याद्यवचनं वाचा । (भ. प्रा. मला., १६८)। प्रागम और नोमागम के भेद से द्रव्यदिक दो प्रकार जिस वस्तु के विषय में इसे लोभ है उसको लक्ष्य की है। उनमें दिशानिरूपक प्रागम का ज्ञाता होकर बनाकर हाथ फैलाने मादिरूप काय से प्रवत्ति नहीं जो जीव वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से रहित करना तथा 'यह मेरा है' इत्यादि प्रकार से वचन है उसे पागम द्रव्यदिक कहते हैं। जायकारी का उच्चारण न करना, उसे द्रव्यतः लोभविवेक और भव्यशरीर से भिन्न जो तेरह प्रदेशी व्य कहा जाता है।
तेरह प्रदेशवाले क्षेत्र में स्थित है वह नोमागम की द्रव्यतः न भावतः (हिंसा)-या पुनद्रव्यतो न अपेक्षा द्रव्यदिक् कहलाती है। वह दस दिशानों भावतः सा खल्बीर्यादिसमितस्य साधोः कारणे का विभाग करनेवाली है। गच्छत इति । उक्तं च-उच्चालिमम्मि पाए द्रव्यद्रव्य-१. द्रव्यद्रव्यं नाम गुण-पर्यायवियक्तं इरियासमिअस्स संकमट्राए। वावज्जेज कूलिंगी प्रज्ञास्थापितं धर्मादीनामन्यतमत् । केचिदप्याहःमरिज्ज तं जोग्गमासज्जा ।। न य तस्स तपिण- यद् द्रव्यतो द्रव्यं भवति तच्च पूदगल द्रव्यमेवेति मित्तो बंधो सूहमो वि देसिप्रो समए । जम्हा सो प्रत्येतव्यम् । प्रणवः स्कन्धाश्च, सजातभेदेश्य उत्प. अपमत्तो सा य पमानो त्ति निद्दिट्टा ॥ (दशवं. नि. धन्त इति वक्ष्यामः । (त. भा.१-५)। २. व्य. हरि. वृ. ४५)।
द्रव्यमिति उभाभ्यां द्रव्यशब्दाभ्यां गुणादिभ्यो ईर्यासमिति से युक्त साधु जब कारणवश कहीं अन्यत्र निष्कृष्य द्रव्यमाने स्थाप्यते । xxx केचित जाता है तब वह पैरों को जो उठाता धरता है पुनवते यदित्यणुकादि द्रव्यतो द्रव्यमिति । ततीया उसके प्राश्रय से द्वीन्द्रिय प्रादि क्षुद्र प्राणियों का पञ्चम्यर्थे वा तसिरुत्पाद्यः-द्रव्यः सम्भय यत मरण सम्भव है, फिर भी उसके प्राश्रय से उसे सूक्ष्म क्रियते, यथा बहुभिः परमाणुभिः सम्भूय स्कन्धस्त्रिबन्ध भी पागम में नहीं कहा गया, कारण इसका प्रदेशिकादिरारभ्यते तद् द्रव्यद्रव्यम् । अथवा यद यह है कि वह प्रमाद से रहित है, अर्थात जीवरक्षा द्रव्यात् तस्मादेव स्कन्धात् त्रिप्रदेशिकादेर्यदैकः परमें सावधान है, और प्राणिहिंसा जो होती है वह माणुः पृथग्भूतो भवति तदा तस्माद् भिद्यमानात प्रमाद से ही हुआ करती है । इस प्रकार उक्त साधु त्रिप्रदेशिकात् स्कन्धात् परमाणुश्च निष्पद्यते वि. के द्वारा जीवहिंसा (द्रव्यतः) के होने पर भी प्रदेशिकश्च स्कन्ध इति स परमाणुरपि द्रव्यद्रव्यं वैसा भाव न होने से वस्तुत: (भावतः) हिंसा द्विप्रदेशिकोऽपि द्रव्यद्रव्यं भवतीति । तच्चतद द्रव्य.
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