________________
द्रव्यकीत]
५४६, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यतः इन्द्रियविवेक
द्रव्यक्रोत-सचित्तं गो-वलीवादिकं दत्त्वा संय. एण तीदाणागय-वट्टमाणसरीराणं दव्वजिणत्तं पडि. तार्थ क्रीतम्, अचित्तं वा घृत-गुड-खण्डादिकं दत्त्वा विरोहाभावादो (जिणाहारपज्जाएण तीदाणागदक्रीतं (वेश्म) द्रव्यक्रीतम् । (भ. प्रा. २३०; वट्टमाणसरीरा दव्वजिणा) । (धव. पु. ६, पृ. ७)। कातिके. टी. ४४८-४६)।
२. दव्व जिणा जिणजीवा xxx ॥ (चैत्यवन्दसचित्त गाय-बैल आदि को देकर अथवा प्रचित्त घी, गुड एवं खांड प्रादि को देकर ग्रहण की गई वसति- १ जिनकी प्राधारभूत पर्याय के प्राश्रय से प्रतीत, का द्रव्य क्रीत नामक उद्गम दोष से दूषित होती है। अनागत और वर्तमान शरीर को द्रव्यजिन कहा द्रव्यक्रोध-दव्वकोहो णाम भावकोप्पत्तिणिमित्त जाता है। २ जिन जीवों-तीथंकरों (समवसर. दव्वं । (धव. पु. ७, पृ. ८२) ।
णस्थ तीर्थकर को छोड़कर)-को द्रव्यजिन भावकोष की उत्पत्ति के कारणभत द्रव्य को द्रव्य- कहते हैं। क्रोध कहते हैं।
द्रव्यजीव-१. यथेन्द्रार्थमानीतं काष्ठमिन्द्रप्रतिमाद्रव्यगत पिण्डदोष-द्रव्यमूदगमादिदोषसहितमप्य. पर्यायप्राप्ति प्रत्यभिमुखम् इन्द्रः इत्युच्यते तथा धःकर्मणा युक्तं द्रव्यगतमित्युच्यते । (मूला. वृ. जीव-सम्यग्दर्शनपर्यायप्राप्ति प्रति गृहीताभिमुख्यं ६-६६)।
द्रव्यं द्रव्यजीवो द्रव्यसम्यग्दर्शन मिति चोच्यते । (त. उद्गमादि दोषसहित भी अध:कर्म से युक्त भोज्य- वा. १, ५, ४)। २. द्रव्यं तद्गुणवियुक्तः । पदार्थ द्रव्यगत पिण्डदोष (आहारदोष) से दूषित xxx विवक्षया ज्ञानादिगुणवियुक्तत्वं द्रव्यहोता है।
जीवः । (त. भा. हरि. व. १-५)। ३. द्रव्यजीवो द्रव्यगत स्वभाव-बाह्यतरोपाधिसमग्रतेयं कार्येष नाम योऽयमस्मिन् शरीर प्रात्मा स यदा भावेते द्रव्यगतः स्वभावः । (बृहत्स्व. स्तो. ६०)। निादिभिवियुतो विवक्ष्यते स द्रव्यजीवः । (त. भा. कार्यों के विषय में अन्तरंग और बहिरंग कारणों सिद्ध.बु. १-५)। की पूर्णता को द्रव्यगत स्वभाव कहा जाता है। १ जीवनपर्याय (मनुष्यादिविशेषरूप) की प्राप्ति द्रव्यचविशति-द्रव्यचतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिर्द्रव्या. के प्रति अभिमुख द्रव्य को द्रव्यजीव और सम्यग्दणि, सचित्ताचित्त-मिश्रभेदभिन्नानि । (प्राव. भा. र्शनपर्याय की प्राप्ति के अभिमुख द्रव्य को द्रव्यमलय. व. १६२, पृ. ५८६)।
सम्यग्दर्शन कहा जाता है। २ विवक्षावश ज्ञानादिसचित्त, अचित्त और मिश्ररूप चौबीस द्रव्यों को गणों की वियुक्तता का नाम द्रव्यजीव है । द्रव्यचतुविशति कहते हैं।
द्रव्यज्ञान-तथा द्रव्यज्ञानमनुपयुक्ततावस्था । (त. द्रव्यचारित्र-द्रव्यचारित्रमभब्यस्य भव्यस्य वाऽनु- भा. सिद्ध. वृ. १-५)। पयुक्तस्य । (त. भा. सिद्ध. व. १-५)।
ज्ञान की उपयोग रहित अवस्था को द्रव्यज्ञान प्रभव्य अथवा भव्य के उपयोग से रहित चारित्र को कहते हैं। द्रव्यचारित्र कहा जाता है ।
द्रव्यतः इन्द्रियविवेक-१. रूपादिविषये चक्षरादीद्रब्यच्छेदना-दवियं णाम उप्पाद-दिदि-भंगलक्ख- नामादरेण कोपेन वा अप्रवर्तनम् इदं पश्यामि णं तं पि छेदणा होदि, दव्वादो दब्वंतरस्स परिच्छेद- शृणोमि वा, तथा तस्या निविड़कुचतटं पश्यामि, दसणादो । (धव. पु. १४, पृ. ४३५)।
नितम्बरोमराजिबा विलोक यामि, पृथुतरं जघनं द्रव्य का लक्षण उत्पाद, स्थिति और भंग (व्यय) स्पृशामि, कल गीतं सावधानं शृणोमि, मुख-कमलहै। इस प्रकार का द्रव्य भी छेदनारूप है, क्योंकि परिमलं जिघ्रामि, बिम्बाधरमास्वादयामि इति एक द्रव्य (कुडव-धान्य के नापने का एक माप) वचनानुच्चारणं वा द्रव्यतः इन्द्रियविवेकः। (भ. से दूसरे द्रव्य (धान्य) का छेद-प्रमाण का ज्ञान प्रा. विजयो., पृ. १६८)। २. रूपादिषु चक्षुरादीनां होता देखा जाता है।
रागेण द्वेषेण वा अप्रवर्तनमिदं पश्यामीत्यादिरूपेणाद्रव्यजिन-१. घणुहसहचारपज्जाएण तीदाणागय- न्तर्विकल्पेन वाग्व्यापारेण वा द्रव्यतः इन्द्रियविवेकः । वट्टमाणमणुगाणं धणुहववएसो व्व जिणाहारपज्जा. (भ. प्रा. मला., पृ. १६८)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org