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द्रव्यकरण]] ५४५, जैन-लक्षणावली
[द्रव्यकाल च स्याद् द्वाभ्यामेकेन वस्तु लक्ष्येद्वा ॥ (अध्यात्मक. ज्ञोऽनुपयुक्तस्तच्छरीरं वा द्रव्यकायोत्सर्गः। (मूला. २-५)।
वसु. ७. ७-१५१) । २. सावद्यद्रव्यसेवनद्वारेणा१ जो अपने स्वभाव को न छोड़ता हा उत्पाद, गतातीचारनिहरणाय कायोत्सर्गः, कायोत्सर्गव्याव्यय और प्रौव्य से सम्बद्ध रहकर गुण और पर्याय वर्णनीयप्राभृतज्ञोऽनुपयुक्त स्तच्छरीरं भाविजीवस्तद्से सहित होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। ६ नय और व्यतिरिक्तो वा द्रव्यकायोत्सर्गः । (मन. घ. स्वो. उपनय के जो त्रिकालविषयक एकान्त हैं उनके टी. ८-७०)। समदाय का नाम द्रव्य है, इसे वस्तु भी कहा जाता १ जो कायोत्सर्ग के वर्णन करने वाले प्राभत का ज्ञाता है । ७ जो गुगों का आश्रय होता है उसे द्रव्य कहा हो करके वर्तमान में उसके उपयोग से रहित है ऐसे जाता है।
जीव को, अथवा उसके शरीर को द्रव्यकायोत्सर्ग द्रव्यकरण-१. द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्यनिमित्तं वो कहते हैं । करणम्-अनुष्ठानं द्रव्यकरणम् । (सूत्रकृ. नि. शी. द्रव्यकारक-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्य भूतो वा कारको वृ. १, ५, पृ. ३) । २. द्रव्य-य द्रव्येण द्रव्ये वा द्रव्यकारकः । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. ४)।। करणं द्रव्यकरणमिति । (प्राव. भा. मलय. बु. द्रव्य के, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यस्वरूप कारक को १५३, पृ. ५५८)।
द्रव्यकारक कहते हैं। १ द्रब्य का द्रव्य के द्वारा या द्रव्य के निमित्त अनु- द्रव्यकाल-१. चेयणमचेयणस्स व दव्वस्स ठिइ उ ष्ठान करने को द्रव्यकरण कहते हैं।
जा च उविगप्पा। सा होइ दव्वकालो प्रहवा दवियं द्रव्यकर्म-१. जाणि दवाणि सब्मावकिरिया- तु तं चेव ॥ (प्राव. नि. ६६१)। २. दव्वस्स णिफण्णाणि तं सव्वं दव्वकम्मं णाम। (घटखं. ५, वत्तणा जा स दव्वकालो तदेव वा दव्वं । न हि ४, १५-धव. पु. १३, पृ. ४३) । २. पोग्गलपिंडो वत्तणाविभिण्णं जम्हा दव्वं जमोऽभिहिमं ॥ दव्वं (कम्म)xxx॥ (गो. क. ६)। सुत्ते जीवाजीवा समयाऽऽवलियादो पच्चंति । १ जो द्रव्य स्वभावत: सद्भावक्रिया से निष्पन्न हैं, दव्वं पुण सामन्नं भण्णइ दब्वट्ठयामेत्तं ॥ (विशेषा. इस सबको द्रव्यकर्म कहा जाता है। जीव का जो २५२५-२६)। ३. वर्तनादिलक्षणो द्रव्यकालः । ज्ञान-दर्शनस्वरूप से परिणमन है, यह जीवद्रव्य की। (प्राव. नि. हरि. वृ. ६६०, पृ. २५७)। ४. 'द्रव्य' इति सद्भावक्रिया है, पुदगल का जो वर्ण रसादिरूप वर्तनादिलक्षणो वाच्यःxxxतत्र चेतनस्य सूरापरिणमन है, यह पुद्गलद्रव्य की सद्भावक्रिया है। देव्यस्य अचेतनस्य स्कन्धादेव्यस्य या स्थिति:-या इसी प्रकार धर्मादि द्रव्यों की भी सद्भावक्रिया अवस्था चतुर्विकल्पा-चतुर्भङ्गा-सा द्रव्यकालो जानना चाहिए। २ द्रव्य और भाव के भेद से भवति, द्रव्यस्य कालो द्रव्यकाल इति षष्ठीतत्पुरुषो कर्म दो प्रकार का है। उनमें ज्ञानावरणादि रूप से भेदे, अथवा तदेव सुरादिद्रव्यं काल उच्यते, पर्यायपरिणत पुद्गल पिण्ड को द्रव्यकर्म कहा जाता है। पर्यायिणोरभेदोपचारात् ।xxxद्रवतीति द्रव्यम्, द्रव्यकाय-द्रव्यकायो ज्ञशरीर-भव्यशरीरव्यतिरि. तस्य द्रव्यस्य या वर्तना दब्धकालो-सा द्रव्यकालो क्तः, शरीरत्वयोग्या प्रगृहीतास्तत्स्वामिना वा जीवेन भण्यते । वा-अथवा तदेव द्रव्यं कालो द्रव्यकाल मुक्ता यावत् तं परिणामं न मुञ्चन्ति ताबद् द्रव्य- इति कर्मधारयः समासः। xxx जीवाजीवा: कायः । (प्राव. सू. १, मलय. व. पृ. ५५७)। समयादयोऽभिधीयन्ते, जीवादय: काल उच्यते इत्यर्थज्ञायकशरीर और भव्यशरीर से व्यतिरिक्त द्रव्य- स्तस्माद् द्रव्यमेव कालो द्रव्यकाल इति । (विशेषा. काय कहलाता है । शरीर के योग्य प्रगृहीत अथवा भा. को. व. २५२८-२६, पृ. ६०६-७)। उसके स्वामी जीव के द्वारा छोड़े गये पुद्गलस्कन्ध १ चेतन-प्रचेतन द्रव्य की जो चार भंग (सादिजब तक उस परिणाम (अवस्था) को नहीं छोड़ते सपर्यवसान, सादि-प्रपर्यवसान, अनादि-अपर्यवसान हैं तब तक उन्हें द्रव्यकाय कहा जाता है।
व अनादि-सपर्यवसान) रूप-स्थिति है, उसे द्रव्यकाल द्रव्यकायोत्सर्ग-१. कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभृत- (अध्य का काल) कहा जाता है।
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