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[क्षपितकर्माशिक
१ प्राठों कर्मों की मूल व उत्तर भेदभूत प्रकृतियों के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धों का जो जीव के निर्मूल विनाश - पृथग्भाव होता है, इसका नाम क्षपण है । २ क्रोध, मान, माया और मद का क्षय करने वाले जीव को क्षपण कहा जाता है । यह उसकी सार्थक संज्ञा है । क्षपितकर्माशिक - १. पल्लासंखियभागोणकम्मट्ठइमच्छिम्रो णिगोएसु । सुहुमेसुऽभवियजोग्गं जहन्नयं कट्टु णिग्गम्म || जोग्गेसुसंखवारे सम्मत्तं लभिय देसविरइं च । श्रट्ठक्खुत्तो विरइं संजोयणहा तइयवारे || चउरुवसमित्तु मोहं लहूं खवेंतो भवे खवियकम्मो | पाएण तर्हि पगयं पडुच्च काओ वि सविसेसं । ( कर्मप्र. २, ६४-६६, पृ. १२६) । २. जो जीव हुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्म ट्ठिदिमच्छिदो । तत्थ य संसरमाणस्स बहवा प्रपज्जत्तभवा, थोवा पज्जत्तभवा । दीहाम्रो अपज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ पज्जत्तद्धाम्रो । X X X एवं णाणाभवग्गहणेहिं प्रट्ठसंजमकंडयाणि प्रणुपालइत्ता चदुक्खुत्तो कसाए उवसामइत्ता पलिदोवसमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि संजमासंजमकंयाणि सम्मत्त कंडयाणि च प्रणुपालइत्ता एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे पुणरवि पुष्वकोडाउएसु मणुसे उबवण्णो । सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मण जादो श्रवस्सियो । संजमं पडिवण्णो । तत्थ य भवद्विदि पुव्वकोडि देसूणं संजममणुपालइत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति य खवणाए अब्भुट्टिदो ।
क्षपक - १. चारित्रमोहक्षपणकारिणः क्षपकाः । ( धव. पु. १, पृ. १८२) । २. मोहक्खयं कुणतो उत्तो खव जिणिदेहि । ( भावसं. दे. ६६० ) । ३. तपस्वी क्षपक: । ( स्थाना. अभय वृ. ३, ४, २०८ ) । ४. क्षपकः क्षपकश्रेणिः । ( व्यव. भा. मलय. वृ. ६६६, पृ. १) ।
१ चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय करने वाले साधुनों चरिमसमयछदुमत्थो जादो । तस्स चरिमसमयछदुको क्षपक कहते हैं । मत्थस्स णाणावरणीयवेदणा दव्वदो जहण्णा । ( ष. क्षपकश्रेणी - देखो क्षायिकी श्रेणी । यत्र तत् खं. ४, २, ४, ४ε-७५ – पु. १०, पृ. २६८-६६ ) । ( मोहनीय कर्म) क्षयमुपगमयन्नुद्गच्छति सा क्षपक२ जो जीव पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग से होन कर्मस्थितिकाल (७० कोड़ाकोड़ि सा.) तक सूक्ष्म श्रेणी । (त. वा. ६, १, १८) । मोहनीय कर्म का क्षय करता हुझा प्रात्मा जिस निगोद जीवों में रहकर अपर्याप्त व पर्याप्त भवों श्रेणी - पूर्वकरण, श्रनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय को यथाक्रम से अधिक व अल्प ग्रहण करता रहा । इस प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ वहां से मौर क्षीणमोह इन चार गुणस्थानों रूप नसैनीनिकलकर क्रम से बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, पर श्रारूढ़ होता है उसे क्षपकश्रेणी कहते हैं । क्षपरण- १. खवणं णाम कि ? अटुण्हं कम्माणं पूर्वकोटि प्रमाण प्रायु वाले मनुष्य, दस हजार वर्ष मूलुत्तरभेयभिण्णपय डि-द्विदि - अणुभाग-पदेसाणं जीकी श्रायु वाले देव, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, वादो जो णिस्सेसविणासो तं खवणं गाम । ( धव. सूक्ष्मनिगोद जीव पर्याप्त और बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त; इन जीवों में उत्पन्न होकर यथायोग्य पु. १, पू. २१५-१६) । २. मान-माया-मदामर्षसम्यक्त्व व मिथ्यात्व श्रादि को प्राप्त होता रहा । क्षपणात्क्षपणः स्मृतः । ( उपासका ८५९ ) ।
क्षत्रिय ]
ज्ञान, व्रत, शील और गुणों का निर्मल करना, श्रथवा कलंक -- कर्ममल - का धोना या भस्म कर देना, इमका नाम प्रतिबोधनता है। प्रत्येक क्षण या लव में इस प्रकार की प्रतिबोधनता का रहना, इसे क्षण- लवप्रतिबोधनता कहते हैं। वह तीर्थंकर प्रकृति की बन्धक षोडशकारणभावनाओं में से एक है । क्षत्रिय - १. रक्खणकरणनिउत्ता जे तेण नरा महन्तदढसत्ता । ते खत्तिया XXX ।। ( पउमच. ३ - ११५ ) । २. क्षत्रियः क्षततस्त्राणात् X××। ( पद्मपु. ६ - २०९ ) । ३. क्षत्रियाः क्षतितस्त्राणात् × × × । (ह. पु. ε- ३९ ) । ४. क्षत्रियाः शस्त्रजीवित्वमनुभूय तदाऽभवन् । ( म. पु. १६-१८४); क्षतत्राणे नियुक्ता हि क्षत्रियाः शस्त्रपाणयः । ( म. पु. १६ - २४३ ) ; x x x क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् । (म. पु. ३८ - ४६ ) । ५. 'क्षण हिंसायां' क्षणनानि क्षतानि तेभ्यस्त्रायत इति क्षत्रियः राजा भवति । (उत्तरा. शा. वृ. ३-४, पू. १८२ ) । १ श्रतिशय बलशाली जो मनुष्य भगवान् श्रादिनाथ के द्वारा रक्षणकार्य में नियुक्त किये गये थे वे क्षत्रिय कहलाये ।
३८१, जैन - लक्षणावली
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