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क्रोधवशार्तमरण]
३८०, जैन-लक्षणावली
[क्षणलवप्रतिबोधनता
द्धियो कुप्पे। कोहफलम्मिावि दिठे जो लब्भइ रीर-मानसदुःखसन्तापात् क्लिश्यन्त इति क्लिश्यकोहपिंडो सो। (पिडनि. ४६२-६३)। २. विद्या- माना: । (त. वा. ७, ११, ७)। तपःप्रभावज्ञापनं राजपूजादिख्यापनं क्रोधफलदर्शनं १ असातावेदनीय के उदयजनित पीड़ा के अनुभव वा भिक्षार्थं कुर्वतः क्रोधपिण्डः। (योगशा. स्वो. से दुखी हए जीवों को क्लिश्यमान कहते हैं। विव. १-३८)।
क्लीब-देखो नपुंसक । क्लीबः यः स्त्रियाभ्यर्थितः १ अपनी विद्या (उच्चाटन-मारणादि) व तप के कामाभिलाषासहः, स क्लीबः यस्य स्त्रीदर्शनाद प्रभाव को तथा राजकुल में प्राप्त स्नेहभाजनता
कल में प्राप्त स्नेहभाजनता बीजं क्षरति । (प्रा. दि. पृ.७४)। रूप प्राभ्यन्तर सामर्थ्य को जतला कर जो प्राहार जो स्त्री से प्रार्थित होकर काम की अभिलाषा को प्राप्त किया जाता है वह क्रोधपिण्ड कहलाता है। नहीं सह सकता है, अथवा स्त्री के दर्शनमात्र से अथवा अन्य के लिए दिये जाने पर याचना करते जिसका वीर्य क्षरित हो जाता है उसे क्लीब कहते हए भी यदि प्राप्त नहीं होता है तो साथ कूपित है। ऐसा व्यक्ति दीक्षा के योग्य नहीं होता। होता है। पर साधु का कुपित होना ठीक नहीं, ऐसा क्लेशवरिगज्या-१. अस्मिन् देशे दासा दास्यश्च जानकर अथवा क्रोध के फलस्वरूप मरण या शाप सुलभास्तानमुं देशं नीत्वा विक्रये कृते महानर्थलाप्रादि के निर्दिष्ट करने पर दाता के द्वारा जो प्राहार भो भवतीति क्लेशवणिज्या। (त. वा. ७, २१, दिया जाता है उसे क्रोपिण्ड जानना चाहिए। २१; चा. सा. पृ. ६) । २. अस्मात् पूर्वादिदेशात्
दासीन्दासान् अल्पमूल्यसुलभान् प्रादाय अन्यस्मिन् क्रोधवशार्तमरण-अनुबन्धरोषो य प्रात्मनि परत्र
गुर्जरादिदेशे तद्विक्रयो यदि क्रियते तदा महान् धनउभयत्र वा मारणवशोऽपि मरणवशो भवति । तस्य
लाभो भवेदिति क्लेशवणिज्या कथ्यते । (त. वृत्ति क्रोधवशार्तमरणं भवति । (भ. प्रा. विजयो. २५,
श्रुत. ७-२१)। पृ. ८९)।
१ इस प्रदेश में दासी-दास सुलभ हैं-अल्प मूल्य क्रोध के वश होकर अपने, अन्य के अथवा दोनों के ही घात में प्रवृत्त होने पर जो स्वयं मृत्यु के वश
में उपलब्ध होते हैं, इन्हें अमुक देश में ले जाकर
बेचने पर भारी धनलाभ होगा, इस प्रकार के होता है उसके इस मरण को क्रोधवशार्तमरण कहा
व्यापार को क्लेशवणिज्या कहते हैं। जाता है।
क्षण-१. परिमाणोत्प्रदन्तर-(परमाणोस्तदन्तर-) क्रोधादिपिण्ड-क्रोध-मान-माया-लोभैरवाप्तः क्रो
व्यतिक्रमकालः क्षणः। (सिद्धिवि. टी. ५, १६, पृ. धादिपिण्डः। (प्राचा. सू. शी. व. २, १, २७३,
३४६, पं. २७)। २. थोवो खणो नाम । सो च पृ. ३२०)।
संखेज्जावलियमेत्तो होदि । कुदो ? सखेज्जावलियाक्रोध, मान, माया, और लोभ के द्वारा प्राप्त किये
हि एगो उस्सासो, सत्तुस्सासेहि एगो थोवो होदि त्ति जाने वाले प्राहार को क्रोधादिपिण्ड कहते हैं । यह
परियम्मवयणादो। (धव. पु. १३, पृ. २६६)। सोलह उत्पादन दोषों में क्रोधादि के क्रम से ७, ८,
१ एक परमाणु का दूसरे परमाणु के प्रतिक्रमण का है और १०वा दोष है।
जो काल है, उसे क्षण (समय) कहते हैं । २ स्तोक कोश-देखो गव्यूत, गव्यूति । १.XXXदोदंड- का नाम क्षण है और वह स्तोक सात उच्छवास सहस्सयं कोसं । (ति. प. १-११५)। २. घणुदु- प्रमाण होता है। सहस्सकोसोxxx॥ (संग्रहणी सू. २४७)। क्षरणलवप्रतिबोधनता (खरगलवपडिबुज्झरणवा) ३. द्वौ धनःसहस्री गव्यूतम् । (संग्रहणा .. -खण-लवा णाम कालविसेसा । सम्महसण-णाण२४५)।
वद-सीलगुणाणमुज्जालणं कलंकपक्खालणं संधुक्ख१ दो हजार धनुष का एक कोश होता है।
णं वा पडिबुज्झणं णाम, तस्स भावो पडिबुज्झक्लिश्यमान-१. असद्वेद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्य- णदा। खण-लवं पडि पडिबुज्झणदा खण-लवपडिमानाः। (स. सि. ७-११)। २. प्रसवद्योदयापा- बुज्झणदा । (धव. पु.८, पृ. ८५)। जितक्लेशाः क्लिश्यमानाः। असदेद्योदयापादितशा- शण और लव ये काल के भेव हैं। सम्यग्दर्शन.
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