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तपःसमाधि ]
में उद्यत रहता है वह तपस्वी प्रशंसा का पात्र होता है । २ जो महोपवासादिरूप तप का प्राचरण करता है वह तपस्वी कहलाता है । ३ जो विप्रकृष्ट - दसमादि कुछ कम छह मास तक - भयानक तप से युक्त होता है उसे तपस्वी कहा जाता है ।
४८८, जैन - लक्षणावली
तपःसमावि 1 - १. भवइ ग्र इत्थ सिलोगो - विविह गुणतवोरए य निच्चं भवइ निरासए निज्जरट्ठिए । तवसा धुणइ पुराणपावगं जुत्तो सया तवसमाहिए || ( वशवै. सू. ६, ४, ४ पृ. २५७ ) । २. तपःसमाधिनापि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा क्षुत्तृष्णादिपरीषहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निर्वाणस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यते । (सूत्रकृ. नि. शी. वृ. १, १०, १०६, पृ. १८८) ।
१. जो अनेक गुणयुक्त तप में सदा रत रहता है, इहलोकादि की श्राशा से रहित है, तथा कर्मनिर्जरा का अभिलाषी है; वह विशुद्ध तप से पुरातन कर्म को नष्ट करता हुआ और नवीन कर्म को न बांधता हुधा तपःसमाधि में युक्त होता है।
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तपः संयम - तपः अनशनादिः तत्प्रधानः संयमः - पञ्चाश्रवविरमणादिस्तपः संयमः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ३ - १५६, पृ. १४४ ) । अनशनादिरूप तप की प्रधानता युक्त संयम - पांच श्राश्रवों से विरति आदि का नाम तपःसंयम है । तपः सिद्ध - १. न किलम्मइ जो तवसा सो तवसिद्धो दढप्पहारव्व । ( श्राव. नि. ९५२) । २. न क्लाम्यति न क्लमं गच्छति यः सत्त्वस्तपसा बाह्याभ्यन्तरेण स एवम्भूतस्तपः सिद्धः अग्लानित्वाद्, दृढप्रहारिवत् । ( श्राव. नि. हरि व मलय. वू. ε५२) ।
२ जो बाह्य और अभ्यन्तर तप से संक्लेश को प्राप्त न हो उसे तपःसिद्ध कहते हैं । जैसे - दृढ़ता से प्रहार करने वाला पुरुष उत्साहयुक्त होने से कभी खेद को नहीं प्राप्त होता । तपोऽहं- तवारिहं जम्मि पडिसेविए निव्वीयाइम्रो छम्मासपज्जवसाणो तवो दिज्जइ एवं तवारिहं । ( जीतक. चू. पू. ६ ) । जिस अपराध के सेवन करने पर निविकृति श्रादि छह माह तक चलने वाला तप दिया जावे वह अप
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राध तप प्रायश्चित्त के योग्य (तपोऽहं ) होता है। तपोदानकथा - यादृशं स्यात्तपोदानमनीदृशगुणोदयम् । कथनं तादृशस्यास्य तपोदानकथोच्यते ॥ ( म. पु. ४-६ ) ।
अनुपम गुणों की अभिवृद्धि से युक्त तप और दान की कथा करने को तपोदानकथा कहते हैं । तपोमानवशार्तमररण - तपो मयानुष्ठीयते, अन्यो मत्सदृशश्चरणे नास्ति इति संकल्पयतस्तपोमानवशार्तमरणम् । (भ. प्रा. विजयो. २५) । जैसा महान् तपश्चरण मैं करता हूं वैसा दूसरा नहीं कर सकता, इस प्रकार के संकल्प या अभिमान के साथ होने वाले मरण को तपोमानवशातंमरण कहते हैं ।
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तपोविद्या- देखो तपविद्या | तपोविनय - देखो तपविनय ।
तप्ततप - १. तत्ते लोहकडाहे पडिबुकणं व जीए भुतण्णं । झिज्जदि घाऊहि सा णियभाणाए तत्ततवा ॥ ( ति प १०५३) । २. तप्तायसकटाहपतितजलकणवदाशुशुष्काल्पाहारतया मल- रुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः । (त. वा. ३, ३६, ३) । ३. तप्तं दग्धं विनाशितं मूत्रपुरीष- शुऋदि येन तपसा तदुपचारेण तप्ततपः । जेसि भुत्तच उव्विहाहारस्स तत्तलोहपिडागरिसिदपाणियस्सेत्र णीहारो णत्थि ते तत्ततवा ( धव. पु. ६, पृ. ९१ ) 1 ४. येषां पाणिपात्रगतमन्नं (?) मल- रुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहरणास्तप्ततपसः । (चा. सा. पृ. १०० ) । ५. तप्तायः पिण्डपतितजलकणवद् गृहीताहारशोषणान्नीहाररहितास्तप्ततपसः । ( प्रा. योगिभ. टी. १५, पृ. २०३ )। ६. तप्तायसपिण्डपतितजलबिन्दुवत् गृहीताहारशोषणपरा नीहाररहिताः ये ते तप्ततपसः । (त. वृत्ति श्रुत. ३ - ३६) ।
१ जिस ऋद्धि के प्रभाव से तपी हुई लोह की कड़ाही पर गिरी हुई जल की बूंदों के समान खाया हुना श्राहार शीघ्र सूख जाने से मल व रुधिर श्रादिरूप परिणत नहीं होता वह तप्ततपऋद्धि कहलाती है ।
तम - १. तमो दृष्टिप्रतिवन्धकारणं प्रकाश विरोधि । (स.सि. ५ - २४ ) । २. पूर्वोपात्ताशुभकर्मोदयात् ताम्यति श्रात्मा, तम्यतेऽनेन तमनमात्रं वा
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